सम्पादकीय

सिविल सोसायटी पर सवाल

Rani Sahu
15 Nov 2021 6:33 PM GMT
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने हाल में राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के आईपीएस प्रशिक्षुओं के सामने बोलते समय नागरिक समाज को लेकर जिस चिंता का इजहार किया है

विभूति नारायण राय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने हाल में राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के आईपीएस प्रशिक्षुओं के सामने बोलते समय नागरिक समाज को लेकर जिस चिंता का इजहार किया है, वह एक खास तरह की मानसिकता की अभिव्यक्ति है। यह मानसिकता मानती है कि देश में एक मुख्य नैरेटिव होता है और उससे भिन्न सोचने वाले देश तोड़ने वाले और कई बार जाने-अनजाने शत्रु के लिए काम करने वाले होते हैं। अजीत डोभाल ने उस नागरिक समाज से नए नवेले पुलिस अधिकारियों को सतर्क रहने की सलाह दी है, जो आम तौर से तथाकथित मुख्यधारा के नैरेटिव से भिन्न खड़े दिखते हैं।

जब सोवियत रूस खंड-खंड होकर टूटा, एक मोटे अनुमान के अनुसार, उसके पास दुनिया के सबसे अधिक परमाणु बम थे। सभी धरे रह गए और उसके गणतंत्र एक-एक कर रूस से अलग होते गए। इसके बाद एक शब्द दुनिया भर के सैन्य इतिहासकारों में बहुत लोकप्रिय हो गया- हाइब्रिड वार या संकर युद्ध। माना गया कि अगर मनोवैज्ञानिक दबावों से किसी राष्ट्र के औचित्य को ही संदिग्ध बना दिया जाए और वहां की जनता का एक बड़ा तबका प्रभावी नैरेटिव को चुनौती देने लगे, तो फिर शक्तिशाली सेना भी उस राष्ट्र राज्य को बचा नहीं सकेगी। यह प्रभावी नैरेटिव आम तौर से बहुसंख्यकवाद की उपज होता है और जो इसे चुनौती दे रहे होते हैं, वे अमूमन अल्पसंख्यक विमर्श की निर्मिति होते हैं। हाइब्रिड वार का हौआ खड़ा करने वाले मानते हैं कि देश के शत्रु खुली लड़ाई लड़ने की जगह नागरिक समाज का इस्तेमाल कर उन जड़ों पर ही आघात करने की कोशिश करेंगे, जिनसे राष्ट्र को स्थायित्व और समृद्धि मिलती है। नागरिक अधिकारों, स्वास्थ्य या पर्यावरण जैसे मुद्दे तो सिर्फ बहाने हैं और उनके पीछे छिपा एजेंडा कुछ और ही है।
1960 के बाद का दशक पूरे विश्व में लोकतंत्र की स्थापना का समय कहा जा सकता है। यह वह समय था, जब एशिया और अफ्रीका के गुलाम राष्ट्र औपनिवेशिक गुलामी से धड़ाधड़ आजाद होते जा रहे थे और कुछ एक अपवादों को छोड़ दें, तो सभी आजाद मुल्क लोकतंत्र से अपने-अपने तरीके का साक्षात्कार कर रहे थे। कई जगहों पर कायम नए लोकतंत्र देर तक न टिक सके और जल्द ही फौजी तानाशाहियों ने उनकी जगह ले ली। यह शीतयुद्ध का भी समय था और अमेरिका तथा सोवियत रूस, दोनों के प्रभाव क्षेत्र से बाहर गुटनिरपेक्ष देशों का एक समूह भी था, जो काफी हद तक तक मध्य से बाएं खड़ा दिखता था। इन नव-स्वतंत्र राष्ट्रों में प्रतिरोध की एक नई संस्कृति विकसित हुई, जो कई मायने में विदेशी शासकों के खिलाफ चली आजादी की लड़ाई से भिन्न थी। कोई प्रत्यक्ष विदेशी शत्रु न होने के कारण अमूमन शांतिपूर्ण ढंग से अपनी ही जनता के नागरिक अधिकारों की बहाली के लिए देशी शासकों के खिलाफ आंदोलित होने वाली इस संस्कृति ने हर जगह एक विशाल और विशिष्ट नागरिक समाज विकसित किया। भारत भी इस प्रक्रिया से अछूता नहीं रहा। यह नागरिक समाज एक तरफ बहुसंख्यकवाद से संचालित राज्य की ज्यादतियों पर भिन्न अर्थों में अल्पसंख्यकों के जख्मों पर मरहम लगाता चलता है, दूसरी तरफ, इससे भी अधिक उसकी भूमिका प्रेशर कुकर से बीच-बीच में भाप निकालने की भी होती है। इस दूसरी भूमिका के चलते ही प्रौढ़ लोकतंत्र उन पर नियंत्रण न लगाकर उनके लिए काफी कुछ जगह छोड़ते चलते हैं। कई बार सत्ता प्रतिष्ठानों को गलतफहमी हो जाती है कि न सुनना उनकी शान के खिलाफ है और यहीं से संघर्ष शुरू होता है, जिससे बचना दोनों के हित में है।
ज्यादातर नव-स्वतंत्र देशों में एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया भी चली और इसके लिए इन राष्ट्र राज्यों ने अपने-अपने नैरेटिव गढ़े। भारत में भी एक मुख्यधारा की कल्पना की गई और इस अवधारणा को गढ़ने वाले भूल गए कि वैविध्य से भरे इस विशाल भूभाग की खूबसूरती तो उसकी विविधता का सम्मान करते हुए उसे बचाने में ही निहित है। यहां भाषा, खानपान, वेशभूषा सभी में भिन्नताएं थीं, गरज यह कि सबसे बड़े धार्मिक समुदाय हिंदुओं के विवाह जैसे रीति-रिवाज भी भिन्न थे और मुख्यधारा वाले इन भिन्नताओं को नष्ट कर एक ऐसी स्थिति की कल्पना कर रहे थे, जिनमें भारत राष्ट्र में सब एक ही भाषा बोलते, एक जैसे परिधान में दिखते या सबकी थालियों से वह सब गायब हो जाता, जिसको 'मुख्यधारा' अखाद्य समझती है। इस जिद ने कई बार राष्ट्र बनने की प्रक्रिया को बाधित किया और यह नागरिक समाज ही था, जिसने मुख्यधारा की प्रक्रिया को चुनौती दी और देश को टूटने से बचाया। आज विविधताओं के लिए पहले से अधिक सम्मान या स्वीकृति दिखती है, तो इसका श्रेय मुख्य रूप से नागरिक समाज के प्रयासों को ही मिलना चाहिए।
नागरिक समाज तपते सूरज के नीचे किसी नखलिस्तान की तरह होता है, जिस पर चलते हुए आपको कुछ देर शीतलता की अनुभूति हो सकती है। कैसा भी राज्य हो, उसे वक्तन-बेवक्तन ऐसे कदम उठाने ही पड़ते हैं, जिनके चलते नागरिकों को अपना दम घुटता सा लगता है और ऐसे समय समाज का यह हिस्सा, जो पारंपरिक सोच से थोड़ा हटकर खड़ा होता है, उसके लिए किसी प्राणवायु सरीखा काम करता दिखता है। ऐसे में, ताजी हवा के इस झोंके को भी बंद करने के इस प्रयास का हमें समर्थन नहीं करना चाहिए।
पुलिस अकादमी से निकलने वाले प्रशिक्षुओं का मन कच्चे घडे़ की तरह होता है। उस पर कुछ भी उकेरा जा सकता है। खास तौर से अगर सलाह अजीत डोभाल जैसी उनकी अपनी सेवा के 'सफलतम' अधिकारी के मुख से निकल रही हो, तो उनमें से अधिकांश के लिए यह किसी वेदवाक्य से कम नहीं होगा। सौ के लगभग ये अधिकारी अगले पांच-छह वर्षों के भीतर देश के अलग-अलग हिस्सों में पुलिस का मध्य नेतृत्व संभाल रहे होंगे और अगर तब उन्हें यह वक्तव्य याद आया कि राज्य के प्रभावी नैरेटिव के विपक्ष में खड़े दिखते नागरिक समाज के लोग देश की सुरक्षा के लिए खतरा होते हैं, तो हम कल्पना कर सकते हैं कि उनका आचरण कैसा होगा। उन्हें यह समझाना मुश्किल होगा कि पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए बड़े बांधों या आणविक संयंत्रों का विरोध करने वाले देश के शत्रु नहीं हैं, उन्हें यह विश्वास दिलाने में भी आपको काफी प्रयास करना पड़ेगा कि घरेलू हिंसा के खिलाफ बातें करने वाले लोग भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के किसी वृहत्तर अंतरराष्ट्रीय एजेंडे के अंग नही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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