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प्रधानमंत्री कार्यालय भारत के निर्वाचन आयुक्तों को आदेश की भाषा में किसी बैठक में भाग लेने को कहे
चुनाव आयोग को लेकर देश में पहले से ही आम धारणा बनी हुई है कि वह सरकार की सुविधा- असुविधा का ख्याल करते हुए फैसले लेता है। इस रूप में उसने चुनावों के दौरान सत्ताधारी दल और विपक्ष को समान धरातल उपलब्ध कराने के अपने कर्त्तव्य से अक्सर विमुख होता दिखा है।
प्रधानमंत्री कार्यालय भारत के निर्वाचन आयुक्तों को आदेश की भाषा में किसी बैठक में भाग लेने को कहे, यह तभी हो सकता है, जब सरकार के मन में ये बात बैठ चुकी हो कि आयोग के अधिकारी भी उसके मातहत आने वाले अफसरों के जैसे ही हैँ। अगर वर्तमान सरकार के मन में ये बात बैठ चुकी है, तो इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। आयोग ने पिछले कई वर्षों से खुद वैसा ही व्यवहार किया है। आयोग को लेकर देश में पहले से ही आम धारणा बनी हुई है कि वह सरकार की सुविधा- असुविधा का ख्याल करते हुए फैसले लेता है। इस रूप में उसने चुनावों के दौरान सत्ताधारी दल और विपक्ष को समान धरातल उपलब्ध कराने के अपने कर्त्तव्य से अक्सर विमुख होता दिखा है। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार ने अगर चुनाव सुधार संबंधी सिफारिशें खुद तैयार कीं और उन पर विचार-विमर्श के लिए आयुक्तों से बैठक में आने को कहा, तो उस पर शायद ही किसी को हैरत हुई हो। हां, उससे इस सवाल पर चर्चा का एक और मौका जरूर मिला कि भारत में लोकतंत्र की कैसी सूरत बन रही है। आयुक्त इस बार बेपरदा नहीं हुए। उन्होंने बैठक में जाने से इनकार कर दिया। लेकिन परदे के भीतर उन्होंने सरकार की मंशा पूरी की। यानी सरकारी अधिकारी से अनौपचारिक बातचीत में वे शामिल हो गए।
अब चूंकि पूरा विवरण सार्वजनिक है, तो जाहिर है कि निर्देश पर निर्वाचन आयुक्तों के एतराज से उनकी साख बहाल नहीं होगी। इसलिए कि अंततः निर्वाचन आयुक्त एक स्वायत्त संस्था के संचालक के रूप में अपनी हैसियत जताने और अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहे। यह खतरनाक संकेत है। उदार लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की साख जिस बात से कायम रहती है, वह चुनावों की निष्पक्षता ही है। ये साख तब सुरक्षित रहती है, जब तक ये धारणा कायम रहे कि चुनावों में सबको समान धरातल मिला है। तब पराजित पक्ष के लिए अपनी हार स्वीकार करना कठिन नहीं होता। भारतीय लोकतंत्र को इसीलिए एक सफल प्रयोग माना जाता रहा है, क्योंकि यहां चुनावों की साख बनी रही है। इसे सुनिश्चित करने में निर्वाचन आयोग की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। टीएन शेषन के दौर मे आयोग ने अपनी भूमिका और पुख्ता की थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब इसमें क्षरण होता दिख रहा है।
नया इण्डिया
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