सम्पादकीय

नीम हकीमी का मायाजाल

Subhi
22 Feb 2022 3:48 AM GMT
नीम हकीमी का मायाजाल
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हमारे यहां डाक्टरों को ‘भगवान’ कहा जाता है, क्योंकि वे नाजुक परिस्थिति में भी हमारा जीवन बचा लाते हैं। भारतीय डाक्टरों से जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि पूरी दुनिया में हमारे डाक्टरों की योग्यता का डंका बजता है।

दीप्ति कुशवाह: हमारे यहां डाक्टरों को 'भगवान' कहा जाता है, क्योंकि वे नाजुक परिस्थिति में भी हमारा जीवन बचा लाते हैं। भारतीय डाक्टरों से जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि पूरी दुनिया में हमारे डाक्टरों की योग्यता का डंका बजता है। वे विकसित देशों के नामीगिरामी अस्पतालों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं और दुनिया भर से मरीज अच्छे इलाज की चाह में भारत आते हैं।

लेकिन इसका एक दूसरा चेहरा भी है। किसी भी शहर में निकल जाइए, सड़क किनारे दीवारों पर 'गुप्तरोग का शर्तिया इलाज' वाले विज्ञापन और तंबू वाले अस्पताल जरूर मिलेंगे। इन तंबुओं के बाहर पोस्टरों पर तरह-तरह की शक्ति बढ़ाने और खो गई शक्तियों को पाने के रामबाण इलाज का दावा किया गया होता है। इनके लिए अन्य नाम है 'झोलाछाप डाक्टर'। अंग्रेजी में उन्हें 'क्वैक' कहा जाता है। इनसे जुड़ा मुहावरा 'नीम-हकीम खतरा-ए-जान' भी आपके ध्यान में आया होगा।

दरअसल, हमारे यहां सेहत को लेकर तो कमोबेश जागरूकता पाई जाती है, लेकिन कई बार लगता है कि इस मसले को ज्यादातर लोग टुकड़ों में बांट कर देखते हैं। मसलन, समाज में लोग कुछ बीमारियों को लेकर डाक्टर के पास जाने से हिचकते हैं, दाएं-बाएं हल खोजते हैं। कोई देख न रहा हो, किसी को पता न चल जाए, चुपचाप इलाज हो जाए… इसी संकोच का दोहन किया जाता है नीम-हकीमों द्वारा संचालित तथाकथित क्लीनिकों में।

जबकि यौन-स्वास्थ्य भी हमारी समूची सेहत का ही एक जरूरी हिस्सा है। यौन अंग भी शरीर के सामान्य हिस्से ही हैं। यह विषय भी जीवन का नैसर्गिक और स्वस्थ भाग हैं, पर भारतीय समाज में इससे जुड़ी बातों को गलत चीज की तरह बरता जाता है। यौन रोगों को लेकर काल्पनिक डर बना दिए गए हैं और इन्हें लेकर बड़ी गोपनीयता अमल में लाई जाती है। इससे संबंधित रोगों को 'गुप्त रोग' का नाम देना दिग्भ्रमित करना है। गोपनीयता के चलते लोगों को सही और जरूरी जानकारी नहीं मिलती। यह अभाव गलतफहमियों को जन्म देता है।

नीम-हकीम और बाबा कहे जाने वाले लोग आम जन के बीच इसी अज्ञानता, भ्रांतियां और इसके इलाज के नाम पर अनेक अंधविश्वासों का फायदा उठाते हैं। वे शारीरिक विकास की सामान्य दशाओं को भी बीमारी बता कर लोगों को ठगते हैं। शोध कहते हैं कि बीमारी समझी जाने वाली अनेक समस्याओं का हल केवल उचित शिक्षा या सही मार्गदर्शन होता है। हमारे यहां मन और यौन से जुड़े रोगों को लेकर खुली सोच या सहानुभूतिपूर्ण मानसिकता नहीं है। इनके पीड़ितों को हेय या जुगुप्सा की नजर से देखा जाता है।

जैसे एचआइवी से पीड़ित व्यक्तिका चरित्र तुरंत शक के घेरे में आ जाता है। जबकि यह दूषित रक्त चढ़ाने या दूषित सुई के इस्तेमाल से भी हो सकता है। हालत यह है कि जब पुरुषों को भी इससे संबंधित दिक्कतों के लिए डाक्टरों के पास जाने से हिचकते पाया जाता है तो स्त्रियों के बारे में तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। स्त्रियों को तो कई ऐसी बातों के लिए भी उपेक्षा और दुत्कार झेलनी पड़ती है। बच्चा न होना ऐसा ही एक उदाहरण है। इसमें कई बार पति में कमी कारण होती है, पर लांछन लगता है स्त्री पर। सदियों से स्त्री-दिमागों का समाजीकरण या मानस की रचना भी इस तरह की गई है कि वे मातृत्व में ही संपूर्णता मानती हैं। आश्चर्य नहीं कि वे 'झोलाछाप डाक्टरों' का आसान शिकार होती हैं।

इसी तरह, कुछ दुकानें 'सम्मोहन विद्या' सिखाने की होती हैं। लड़की हाथ न आ रही हो तो वशीकरण, किसी से परेशानी हो तो उसके लिए तांत्रिक गतिविधि, सौतन से छुटकारा पाने के टोटके, भूत भगाने के सिद्ध तंत्र-मंत्र। क्या सचमुच हमारा समाज विज्ञान की सदी में प्रवेश कर चुका है और अंतरिक्ष तक छलांग लगा चुका है? बाघ का नाखून, शेर की मूंछ का बाल, उल्लू की हड्डी, सांप की केंचुली जैसी करामाती दवाइयों से ठीक करने का दावा होती है। चिकित्सा प्रशासन का इनकी तरफ से आंखें मूंदे रहना प्रश्नों के घेरे में आना चाहिए।

इनके लिखित दावों में शुमार होता है कि ये अपनी जड़ी-बूटियां और औषधियां सीधे हिमालय से लाते हैं। गोया इनमें से हर एक पर्वतारोही होता है। चरक, सुश्रुत, धन्वन्तरी तो मानो इनके झोले में ही रहते हैं। इलाज के नुस्खे सब खानदानी। कान में से कान से बड़ा मैल का लोंदा निकाल देना इनके बाएं हाथ का काम होता है!

अब इंटरनेट तक नीम-हकीमों का जाल इस कदर फैल रहा है कि निजता के नाम पर न कोई किसी पर भरोसा कर रहा, न रख रहा। इंटरनेट इस्तेमाल करते समय इन विज्ञापनों के तुरंत दिखने का मतलब हुआ कि नीम-हकीम जानते हैं कि पढ़े-लिखे कंप्यूटर का इस्तेमाल करने वाले भी भी गुप्त तरीके से दवाएं पाना चाहते हैं। अधिक गहराई से सोचें तो इसमें एक और पन्ना खुलता है। यानी पढ़े-लिखे लोग सड़क किनारे उन तक नहीं आ सकते तो वे ही कंप्यूटर की खिड़की से उनके भीतर झांक लेंगे। क्या इन जाली 'भगवानों' को खुद इलाज की आवश्यकता नहीं है?


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