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लेकिन उन्हें तत्काल युद्ध रोक देना चाहिए। उन्हें परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी भी नहीं देनी चाहिए।
अरसा पहले हमारे राष्ट्रपिता और आधुनिक दौर के शांतिदूत मोहनदास करमचंद गांधी ने कहा था : अगर आप अपनी आंखों के सामने हिंसा घटित होते देखते हैं और उसका विरोध नहीं करते, सक्षम होने के बावजूद हिंसा रोकने की कोशिश नहीं करते, तो आप भी उतने ही दोषी हैं, जितना हिंसा करने वाला। इस पैमाने पर देखें, तो पूरी दुनिया, खासकर अमेरिका, यूरोपीय संघ और नाटो ने हिंसा का विरोध न कर या उसे न रोककर गांधी को विफल किया।
यूक्रेन में पिछले छह सप्ताह से जारी हिंसा में सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए हैं। मारे गए अनेक लोगों के साथ भीषण क्रूरता बरती गई; सुनियोजित तरीके से हत्या करने के बाद मृतकों को समूहों में दफना दिया गया; लाखों लोगों ने भागकर पूर्वी यूरोपीय देशों में शरण ली; हिंसा शुरू होने के बाद से यूक्रेन में कम से कम एक करोड़ लोग बेघर हो गए हैं। बूचा में हुआ नरसंहार तो सभ्य देशों के चेहरे पर धब्बा है। जबकि आज के दौर में ऐसी बर्बरता बर्दाश्त के काबिल नहीं है। लेकिन कुछ देश तथ्यों को दबाने में लगे हैं।
रूस ने एक स्वतंत्र और संप्रभु देश पर हमला बोला है, वहां के स्कूलों और अस्पतालों को ध्वस्त कर दिया है, आवासीय भवनों को मलबे में तब्दील कर दिया है और बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों समेत लाखों लोगों का जीवन बर्बाद कर दिया है। बचे हुए लोग शून्य से भी कम तापमान में बिजली न होने के कारण बगैर हीटिंग के घरों में रह रहे हैं। रूसी बमबारी और मिसाइल हमलों के कारण यूक्रेन में भोजन और दवाओं की भारी कमी है।
मीडिया में ऐसी भी रिपोर्टें आई हैं कि लोग अपने मृतक परिजनों को आवासीय भवनों में ही दफन करने को मजबूर हैं। रूस का यह आरोप हास्यास्पद ही है कि उसे बदनाम करने के लिए यूक्रेन में लोग खुद ही अपने परिजनों को मार रहे हैं। इस मामले में अमेरिका का दामन भी साफ नहीं है, जिसने सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक हत्याओं के हथियार होने का झूठा दावा कर वर्ष 2003 में इराक पर हमला किया था। उसके बाद बी-52 बम और टॉमहॉक व पैट्रियट मिसाइल हमलों के जरिये उसने अरब विश्व के सबसे विकसित देश को पचास साल पीछे धकेल दिया। नाटो भी पाक-साफ नहीं है। आखिर उसने लीबिया के मामले में संयुक्त राष्ट्र के निर्देश से आगे बढ़कर लीबिया की सेना को सीधे निशाना बनाया था, जिसका नतीजा कर्नल गद्दाफी के तख्तापलट के रूप में सामने आया था।
रूस ने यूक्रेन में जो कुछ किया है, वह युद्ध अपराध के दायरे में आता है। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन का कहना सही है कि पुतिन को सत्ता में बने रहने का हक नहीं है। लेकिन पुतिन की आक्रामकता के संदर्भ में विदेशी शक्तियों का लक्ष्य सिर्फ रूस में सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं रहना चाहिए। अलबत्ता जब कोई देश एक संप्रभु राष्ट्र पर हमला करने में नहीं हिचकता और संयुक्त राष्ट्र इस हमले को सिर्फ इसलिए नहीं रोकता, क्योंकि आक्रमणकारी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है, तब क्या दुनिया को हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना चाहिए? मौजूदा वैश्विक निष्क्रियता क्या किसी दूसरे आक्रमणकारी को किसी दूसरे देश पर हमला करने के लिए दुष्प्रेरित नहीं करेगी? यह हिंसा रोकने के लिए विश्व समुदाय को कुछ न कुछ करना होगा। बेहतर होगा कि संयुक्त राष्ट्र के जरिये वह इस निरंकुश आक्रामकता को रोके और हमले के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई करे। इसके अलावा स्वतंत्र जांच से अगर यह साबित हो जाता है कि बूचा में सचमुच नरसंहार हुआ, तो फिर पुतिन के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।
पुतिन को उनके किए की सजा न दिलवाकर दुनिया आखिर कैसा संदेश दे रही है? संदेश यह है कि कोई बड़ा देश अगर किसी छोटे देश पर हमला करता है, तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है, भले ही यह हमला उस देश की संप्रभुता, उसकी भौगोलिक अखंडता और संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र का उल्लंघन हो। संदेश यह है कि छोटे देश को बर्बाद कर, उसके निर्दोष लोगों की हत्या कर और लाखों लोगों को शरणार्थी बनाकर हमलावर देश छुट्टा घूम सकता है। संदेश यह है कि दुनिया इस बर्बादी को एक असहाय दर्शक की तरह देखेगी। वह हिंसा रोकने के लिए आगे नहीं आएगी, बम गिराते जेट फाइटर विमानों को चुनौती नहीं देगी, सिर्फ सख्त चेतावनी जारी कर और कुछ आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा कर चुप हो जाएगी।
जब तक यूरोपीय संघ की भुगतान सुविधा रूस में जारी रहेगी, पुतिन यूक्रेन में अपनी हिंसक कार्रवाई बंद नहीं करेंगे। और जब तक यूक्रेन को अमेरिका और यूरोपीय संघ से अत्याधुनिक हथियार मिलते रहेंगे, तब तक यूक्रेन के बहादुर सैनिक रूस को जीत से वंचित करते रहेंगे। बड़ी अटपटी स्थिति है। जो देश युद्ध खत्म करने की दिशा में कदम उठाने का दावा कर रहे हैं, वे वस्तुतः दोनों पक्षों को हवा दे रहे हैं।
जहां तक भारत की बात है, तो अपनी रक्षा आपूर्ति के लिए रूस पर निर्भरता, ब्रह्मोस मिसाइल और एसॉल्ट राइफल निर्माण में रूस द्वारा तकनीकी हस्तांतरण की मदद, रूस के ऊर्जा क्षेत्र में भारतीय निवेश, भारत का समर्थन करने का रूसी इतिहास और मौजूदा संकट में भी यूक्रेन से सभी भारतीयों को सुरक्षित बाहर निकालने को प्राथमिकता के तौर पर लेने को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की अनुपस्थिति हमारे राष्ट्रीय हितों के अनुरूप ही थी। लिहाजा अमेरिका या यूरोपीय संघ को हमें यह निर्देश देने का कोई अधिकार नहीं है कि हम रूस से डिस्काउंट पर कच्चा तेल न खरीदें। लेकिन जब हम किसी देश की संप्रभुता, भौगोलिक अखंडता और संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र की बात करते हैं, तब हमें रूस से दोटूक कहना चाहिए कि यूक्रेन पर उसका हमला गलत है। क्या बुद्ध और गांधी की धरती को शांति के लिए ऐसी अपील नहीं करनी चाहिए? हमें नहीं भूलना चाहिए कि एनडीए की पहले की सरकार में, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दूरदर्शी राजनेता कर रहे थे, हमारी संसद ने अमेरिका द्वारा इराक पर किए गए एकतरफा हमले के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया था।
पुतिन से यह कहना चाहिए कि हम रूस में सत्ता परिवर्तन की किसी भी संभावना के खिलाफ हैं, और सुरक्षा के मुद्दे पर उनकी चिंताओं को समझते हैं, लेकिन उन्हें तत्काल युद्ध रोक देना चाहिए। उन्हें परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी भी नहीं देनी चाहिए।
सोर्स: अमर उजाला
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