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- जेहादी मानसिकता का...
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत की सांस्कृतिक समरसता और सामाजिक समन्वयता को जितना अधिक नुक्सान जेहादी इस्लामी मुल्ला और मौलवियों ने पहुंचाया है संभवतः उसका शब्दों में बखान किया जाना संभव नहीं है। भारत को दो हिस्सों में तोड़ने में मुल्ला ब्रिगेड और इस्लाम के नाम पर गठित विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के अलावा शैक्षिक संस्थाओं की भूमिका भी जिस प्रकार विष वमन करने कर रही उसने हिन्दोस्तान की मजबूत संयुग्म जड़ों को हिला कर रख दिया और पाकिस्तान का निर्माण करा डाला। इस्लामी कट्टरपंथियों ने अंग्रेजों के साथ मिलीभगत करके जिस तरह महात्मा गांधी की कांग्रेस के भारत के भौगोलिक संघ राज्य के सिद्धान्त के विरोध में मुहम्मद अली जिन्ना के मजहब मूलक वैचारिक राष्ट्र (आईडोलोजिकल स्टेट) के सिद्धान्त का अंध समर्थन किया उसने भारतीय मुसलमानों की भारत के प्रति निष्ठा को झिंझोड़ कर रख डाला और भारतीय संस्कृति के लोक पर्वों और जन महोत्सवों को हिन्दू – मुस्लिम रंग में बदल डाला तथा हिन्दुओं के भेदभाव रहित त्यौहारों तक को इस्लाम की नजर में कुफ्र घोषित कर दिया। बेशक स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान देवबन्द स्थित इस्लामी स्कूल के उलेमाओं और इस्लामी विद्वानों ने महात्मा गांधी के सिद्धान्तों का समर्थन किया और सभी हिन्दू- मुसलमानों की एकाकी भारतीय राष्ट्रीयता का समर्थन किया परन्तु बरेलवी इस्लामी स्कूल के कट्टरपंथी उलेमाओं ने जिन्ना का साथ दिया और मुसलमानों को प्रथक राष्ट्रीयता से जोड़ा। कट्टरपंथियों का सबसे ज्यादा असर उत्तर प्रदेश व बिहार के मुसलमानों पर ही रहा और यहीं से पाकिस्तान निर्माण के आन्दोलन की धारा फूटी परन्तु हिन्दू–मुसलमान दंगों की शुरूआत जिन्ना ने बंगाल से कराई और 16 अगस्त 1946 को कोलकाता में साम्प्रदायिक दंगे करा कर दस हजार हिन्दू-सिखों का कत्ल कराया। जिसकी प्रतिक्रिया बाद में बिहार में हुई और वहां पांच हजार के लगभग मुसलमान कत्ल कर दिये गये। इसके बाद नोआखाली (बंगलादेश) में हिन्दुओं का कत्लेआम किया गया। इसके बाद आज के पाकिस्तान के पंजाब व अन्य प्रान्तों में मुस्लिम गार्ड के गुंडों व शरारती लफंगे तत्वों ने स्थानीय पुलिस के भी साम्प्रदायिक रंग में रंग जाने से चुन-चुन कर सिखों व हिन्दुओं को अपना कदीमी घर छोड़ने के लिए मजबूर किया और हद यह हो गई कि लाहौर शहर को अपनी मानवीय सेवाओं से मालामाल करने वाले सर गंगाराम के परिवार को नंगे पैरों ही सिर्फ चन्द कपड़ों में अपना वतन छोड़ कर इस पार आना पड़ा। यह मात्र एक उदाहरण है वरना पाकिस्तान में 80 प्रतिशत सम्पत्ति हिन्दुओं और सिखों के पास ही थी और इन्हीं के दम-खम से पूरे पंजाब की अर्थ व्यवस्था सरपट जोड़ती थी परन्तु पुलिस व सेना में मुसलमानों की संख्या 53 प्रतिशत के आसपास थी। यह सब अंग्रेजों की कृपा का ही नतीजा था। इस विवरण का आशय यही है कि जेहादी कट्टरपंथी मुस्लिम उलेमाओं ने किस प्रकार भारत की धरती पर रहते हुए ही हिन्दू व सिखों के प्रति वैमनस्य का भाव जगाया था और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों व अध्यापकों ने भी इस मुहीम में जबर्दस्त हिस्सा लिया था। इस विश्वविद्यालय के छात्रों व शिक्षकों ने 1946 के प्रान्तीय एसेम्बलियों व केन्द्रीय एसेम्बली के चुनाव में हिन्दू विरोध का रिकार्ड कायम कर दिया था और मुसलमानों से यहां तक कहा था कि मुस्लिम लीग को दिया गया वोट रसूल-अल्लाह को दिया गया वोट होगा तथा पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी (जो कि उस समय पंजाब की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी थी) या कांग्रेस को दिया गया वोट 'कुफ्र' । कितनी बेशर्मी के साथ आज के मुस्लिम मुल्ला–मौलवी काशी में भगवान विश्वनाथ के पवित्र धाम को अपवित्र करने के कारनामे की पैरवी कर रहे हैं और ताजा सर्वेक्षण में जहां भोलेनाथ की प्रतिमा निकली है वहीं उन्होंने नमाज पढ़ने के लिए वजू करने का स्थान बना रखा था और बेइमानी की इन्तेहा देखिए कि इसी कथित ज्ञानव्यापी मस्जिद के परिसर में पाखाना तक बना रखा था। इन मुल्ला–मौलवियों की रग- रग में 'बुत शिकनी' समायी हुई है। जिसे वे मदरसों में पढ़ने वाले तालिबों को भी पढ़ाते हैं। बेशक काशी के मामले की सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है जिसमें मुस्लिम पक्ष अपनी दलीलें पेश कर रहा है मगर उसे यह कहने का अधिकार नहीं है कि जिस मस्जिद की दीवारों पर हिन्दू देवी–देवताओं के चित्र अंकित हों और संस्कृत के श्लोक अंकित हो वह इस्लामी मस्जिद हो सकती है। यह कथित मस्जिद केवल भारत में इस्लामी राज काबिज रहने की धौंस गालिब करने की वजह से मगरूर और दुराचारी औरंगजेब ने मन्दिर के ढांचे को हथिया कर तामीर कराई थी। भारत के मुसलमान तभी सच्चे भारतीय हो सकते हैं जब वे स्वयं ही इस मस्जिद को हिन्दुओं को सौंप दें और आक्रान्ताओं से नाता तोड़े जिन्होंने भारत को अपवित्र किया और लूटा। इसी प्रकार मथुरा में श्री कृष्ण जन्म स्थान को भी मुसलमानों को हिन्दुओं को इज्जत के साथ सौंप देना चाहिए। जहां तक 1991 के पूजा स्थल कानून का सवाल है तो यह कानून ही मूल रूप से धार्मिक स्वतन्त्रता के कानून के खिलाफ है और उस समय की नरसिम्हा राव सरकार द्वारा हड़बड़ी में बनाया गया है। हिन्दुओं ने तो कभी हिन्दू राष्ट्र की मांग नहीं की और आजादी के बाद धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को ही स्वीकार किया। मगर इसका मतलब यह कहां निकलता है कि 15 अगस्त 1947 की अर्धरात्रि तक जिन पूजा स्थलों पर इससे पहले किसी दूसरे पक्ष ने जबरन कब्जा किया था उस पर न्याय नहीं किया जा सकता। कानून की नजर में कातिल हमेशा कातिल ही रहता है। किसी चर्च या सिनेगाग के बारे में हिन्दू ऐसा दावा क्यों नहीं करते? केवल बौद्ध मठों और मन्दिरों को ही इस्लामी शासकों ने जानबूझ कर निशाना बनाया।