सम्पादकीय

निष्क्रियता का निर्मल आनंद

Subhi
26 May 2022 5:04 AM GMT
निष्क्रियता का निर्मल आनंद
x
प्रथम विश्वयुद्ध से ध्वस्त यूरोप जब दुबारा विश्वयुद्ध के महाविनाश की तरफ अनचाहे कदम उठाता जा रहा था, लगभग उसी समय सुप्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल ने अपने कालजयी आलेख ‘इन प्रेज आफ आइडिलनेस’ में निठल्लेपन के कसीदे पढ़े थे।

Written by अरुणेंद्र नाथ वर्मा; प्रथम विश्वयुद्ध से ध्वस्त यूरोप जब दुबारा विश्वयुद्ध के महाविनाश की तरफ अनचाहे कदम उठाता जा रहा था, लगभग उसी समय सुप्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल ने अपने कालजयी आलेख 'इन प्रेज आफ आइडिलनेस' में निठल्लेपन के कसीदे पढ़े थे। इस लंबे लेख में उन्होंने समझाया था कि मानव जाति कर्म को जीवन का लक्ष्य मानना बंद कर दे, तो दुनिया बेहतर हो जाएगी।

उनके अनुसार यदि लोग आठ की जगह चार घंटे काम करने लगें तो बेरोजगारी की मारी आधी जनसंख्या को भूखे नहीं सोना पड़ेगा। उधर काम से निढाल हो रहे व्यक्ति ऐसे आनंद पा सकेंगे, जिनके लिए उनके पास न समय बचता था न ऊर्जा। अधिक श्रम का फल कड़वा होता है, क्योंकि अधिक श्रम से उत्पादन बढता है, जिससे सरकारों को अधिक कर मिलता है और वही धन हथियारों की वृद्धि करके अंतत: युद्ध को जन्म देता है।

व्यक्तिगत कर्म तीन प्रकार के होते हैं। पहला, शारीरिक श्रम जो स्वयं किया जाता है। दूसरा, शारीरिक या मानसिक श्रम जो दूसरों से काम लेने में इस्तेमाल होता है और तीसरा, वह जो दूसरों को बताने में इस्तेमाल होता है कि उन्हें क्या करना चाहिए। तीसरे वर्ग के कर्म में लिप्त 'पर उपदेश कुशल' लोग कर्म को दैवी गुण बता कर श्रमिकों को गुलामों में बदल देते हैं। इस भ्रांति से मुक्त होकर हर व्यक्ति न्यूनतम श्रम करे और बचाए गए समय और ऊर्जा को आनंददायक काम करने में लगाए, तो सबका कल्याण होगा।

पर काम तो काम ही है। इससे अधिक कल्याणकारी चिंतन तो हमारे देश में पहले ही से था 'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम।' हमारी प्राचीन संस्कृति में वानप्रस्थ आश्रम के बाद संन्यास की परिकल्पना थी, ताकि गृहस्थ जीवन की कर्मशीलता के बाद मनुष्य भौतिक चिंताओं से मुक्त होकर आतंरिक आनंद भोग सके। मध्ययुग में धनार्जन से विमुख होने की एक नई वजह सामने आई।

हमारी कृषि आधारित समृद्धि खैबर और हिंदूकुश दर्रों से उतर कर आने वाले आक्रांताओं के पैरों तले बार-बार रौंदी गई। अहमद शाह अब्दाली की रक्तरंजित लूट-पाट से त्रस्त किसान सोचने लगे कि उतना ही उगाएं जितना खुद निपटा सकें, क्योंकि 'खाया पीया लाहे दा, बाकी अहमद शाहे दा'। हमारी आधुनिक अर्थव्यवस्था में जिन दिनों निजी आय का तिरानबे प्रतिशत तक आयकर के बहाने सरकार हड़प लेती थी, बड़े उद्योगपतियों को भी अहमदशाही के सताए किसानों का दर्शन ही याद आता था।

आज की कर व्यवस्था में भाग्यशालियों को इतना धनार्जन करने का अवसर मिल जाता है, जिसके बाद आनंद के लिए समय बचे। मध्यवर्गीय, पेंशन भोगी और विदेशों में विपुल धनार्जन करने वाली संतानों से आर्थिक मदद पाकर रोटी, कपड़ा, मकान की चिंता से मुक्त लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है, पर क्या वे आनंद की अनुभूति कर पाते हैं? असल में आनंद की सतत खोज ही आनंद की अनुभूति की जड़ काटती है। कम श्रम करके बचाए हुए समय को पूरी तरह निष्क्रिय होकर बिताने को जब तक पाप समझा जाएगा, तब तक यही स्थिति बनी रहेगी।

आज की विसंगति यह है कि आनंद के लिए जिनके पास समय और सामर्थ्य है, वे आनंद की तलाश में और व्यस्त हो जाते हैं। शायर कहता है 'दर्दे सर के वास्ते कहते हैं संदल है मुफीद, उसका घिसना और लगाना दर्दे सर ये भी तो है।' अपना निजी अनुभव बताऊं। बचपन में मां कभी खाली बैठे देखती तो पूछती थीं, 'क्या कर रहे हो?' उत्तर में 'कुछ नहीं' सुन कर कहती थीं 'पढ़ना न हो तो खेलो, गाओ, चंदामामा पढ़ो, कुछ तो करो। ये बूढ़ों की तरह खाली बैठना कहां से सीख लिया?' दुख इसका है कि ऐसी नसीहतों के चलते हम खाली बैठना ही भूल गए।

स्निग्ध चांदनी में नहाते हुए शून्य में देखना सिरफिरेपन की निशानी बन चुका है। संगीत प्रेमी अपने प्रिय संगीत में मगन होने की जगह संगीतज्ञों के साथ सेल्फी खिंचाने के चक्कर में रहते हैं। साहित्य प्रेमी किताबों में रमे रहने की अपेक्षा स्वयं कुछ लिखने की प्यास से व्याकुल रहते हैं। जब हर व्यक्ति आनंद को सकर्मक क्रिया मान कर आनंद की तलाश में भटक रहा हो, तो जेठ बैसाख की कड़ी धूप में बरगद की घनी छांव में झिलंगी खटिया में धंस कर तपती लू को बयार में बदल कर पीने वाला कौन मिलेगा।

आज तो खांटी निष्क्रियता के लुत्फ से परिचित लोगों को भी समझा दिया जाता है कि आनंद की तलाश में भागते रहना ही जीने का सही अंदाज है। फिर ये बेचारे त्रिशंकु अधर में लटके हुए कहते रहते हैं, 'अगर हल हो गई मुश्किल तो आसानी नहीं जाती, ब-हर-सूरत मेरे दिल की परेशानी नहीं जाती।' इन शायरों के नाम खोज पाता, तो मैं आभार जरूर प्रदर्शित करता, भले नाम तलाशने की मेहनत निर्मल आनंद के इन क्षणों को कम कर देती।


Next Story