सम्पादकीय

पंजाबः नये गठजोड़ व पार्टियां

Subhi
20 Dec 2021 2:08 AM GMT
पंजाबः नये गठजोड़ व पार्टियां
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पंजाब में विधानसभा चुनावों से पूर्व जिस तरह राजनीतिक उठा-पटक चल रही है उसे देखते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि नये-नये बनने वाले राजनीतिक दलों की भूमिका राज्य में अस्थायित्व को दावत दे सकती है

पंजाब में विधानसभा चुनावों से पूर्व जिस तरह राजनीतिक उठा-पटक चल रही है उसे देखते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि नये-नये बनने वाले राजनीतिक दलों की भूमिका राज्य में अस्थायित्व को दावत दे सकती है क्योंकि फिलहाल राज्य में कांग्रेस पार्टी की 117 सदस्यीय विधानसभा में 80 से अधिक विधायकों वाली सरकार है। पंजाब भारत का सीमान्त राज्य है जिसकी सीमाएं पाकिस्तान से मिलती हैं अतः इस राज्य के मतदाताओं की भूमिका अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदारी भरी भी मानी जाती है। हाल ही में एक साल से अधिक समय तक चले किसान आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में से एक श्री गुरुनाम सिंह चढूनी ने अपनी अलग किसान संघर्ष पार्टी गठित करने की घोषणा की है और सभी 117 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान किया है। परोक्ष रूप से उनका यह कदम अकाली दल के मतों में सेंध लगाने का लगता है क्योंकि पंजाब की इस पार्टी का मुख्य जनाधार पंजाब के खेती-किसानी से जुड़े लोगों का ही रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि राजधानी दिल्ली में किसानों ने एक साल से भी अधिक समय तक अपना जो आन्दोलन खींचा उसकी शक्ति का मुख्य स्रोत पंजाब के किसान ही थे। पंजाब की 32 से अधिक किसान यूनियनों ने इस आन्दोलन को अपना समर्थन देकर इसे जन आन्दोलन में तब्दील करने का भी प्रयास किया। उनका यह प्रयास एक सीमा तक सफल भी रहा क्योंकि पूरे पंजाब में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ एक प्रकार से माहौल तैयार हो गया था। हालांकि इस आंदोलन का समर्थन कांग्रेस व अकाली दल भी कर रहे थे मगर किसानों ने अपने मंच पर किसी भी राजनीतिक दल के नेता को न बुला कर स्वयं अपनी रणनीति तय की और आन्दोलन को सफल भी बनाया मगर इसका मतलब यह नहीं होता है कि किसान अपना ही नया राजनीतिक दल बना राजनीति की दिशा बदलने के योग्य हो सकते हैं। किसी भी राजनीतिक दल को समग्रता में काम करना पड़ता है तभी उसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हो सकता है। फिर भी श्री चढूनी की विचारधारा वामपंथ से प्रभावित मानी जाती है और वह अपनी नई पार्टी बना कर इस आधार पर जनसमर्थन की उम्मीद कर सकते हैं जिसका लोकतन्त्र में प्रत्येक नेता को वाजिब अधिकार है। दूसरी तरफ हम देखें तो राज्य में आम आदमी पार्टी से लेकर पूर्व मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस ने भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। यह गठबन्धन कितनी सफलता प्राप्त कर पाता है अथवा मतदाताओं को रिझाने में सफल हो पाता है, यह तो समय ही बतायेगा मगर इतना तय है कि सत्ताधारी कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह के विपक्षी गठबन्धन तैयार हो रहे हैं और नये-नये विपक्षी दल मैदान में कूद रहे हैं उससे सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी को पुनः सत्ता में आने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। पिछले विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को पंजाब में ठीक- ठाक सफलता इसलिए मिली थी कि राज्य की क्षेत्रीय पार्टी अकाली दल व भाजपा पिछले दस सालों से लगातार सत्तारूढ़ चल रहे थे जिसके विरुद्ध सत्ताविरोधी भावना भी बलवती थी और अकालियों ने अपने राज में एक जमाने के सबसे प्रगतिशील व सम्पन्न राज्य पंजाब को कंगाल बना कर छोड़ दिया था। जिसका लाभ कांग्रेस के कर्णधार बने कैप्टन अमरिन्दर सिंह को मिला था क्योंकि कांग्रेस का शासन करने का अनुभव सबसे ज्यादा लम्बा था। अब मुख्यमन्त्री के रूप मे श्री चरणजीत सिंह चन्नी के आने पर और कैप्टन द्वारा कांग्रेस छोड़ दिये जाने से राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। श्री चन्नी चुंकि राज्य के पहले दलित मुख्यमन्त्री हैं और बहुत ही सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति हैं। अतः उनका आभा मंडल आम पंजाबी को प्रभावित किये बिना नहीं रहेगा। दरअसल यह पंजाब की राजनीति में कांग्रेस ने ऐसा परिवर्तन किया है जिसके जरिये वह सत्ता की बागडोर अभी तक वंचित व पिछड़े समाज के हाथ में देना चाहती है। बेशक श्री चन्नी इसे युग परिवर्तन बता रहे हैं मगर हकीकत यह है कि पिछले तीन महीने में उन्होंने जो फैसले किये हैं उनका सबसे ज्यादा लाभ समाज के इन्हीं वर्गों को मिला है जिसकी वजह से विपक्ष को रोजाना नई तरकीब भिड़ानी पड़ रही है। वैसे पंजाब की राजनीति पर अगर गौर करें तो यह अभी तक दो ध्रुवों में इस प्रकार बंटी रही है कि क्षेत्रवाद पर राष्ट्रीय समन्वय प्रभावी रहा है इसकी वजह आम पंजाबी के राष्ट्रीय सरोकार रहे हैं जिन्हें वह सबसे ऊपर मानता रहा है। इसके बावजूद 1967 के बाद से अकाली दल इस राज्य में जनसंघ के साथ गठजोड़ करके एक शक्ति के रूप में उभरा और कांग्रेस को टक्कर देता रहा। इन चुनावों में अकाली दल बसपा के साथ गठबन्धन करके मैदान में उतर रहा है जबकि पिछले चुनावों में वह प्रमुख विपक्षी दल का रुतबा आम आदमी पार्टी के हाथों गंवा चुका था। अब ताजा होने वाले चुनावों में नये गठबन्धनों व नई पार्टियां बनने के बाद क्या तस्वीर उभरेगी इसका जवाब तो केवल पंजाब के सुविज्ञ मतदाता ही देंगे मगर इतना निश्चित है कि पंजाब सामाजिक से लेकर आर्थिक व राजनीतिक स्तर पर होने वाले संशोधनों का स्वागत करने वाला राज्य रहा है।

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