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- सिद्धू की 'कामेडी' में...
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू ने कांग्रेस पार्टी को हंसी-मजाक का ऐसा नमूना बना कर रख दिया है जिसे देख कर सामान्य पंजाबी नागरिक भी सोचने को मजबूर है कि सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष बना कर कांग्रेस को अपनी जग हंसाई करने की जरूरत क्यों आन पड़ी थी? हकीकत तो यह है कि सिद्धू मूलतः राजनीति की गंभीरता के खिलाफ खड़े हुए 'हंसोड़' कलाकार से ज्यादा कुछ नहीं है। यह पंजाब का दुर्भाग्य कहा जायेगा कि पाकिस्तान की सीमा से लगे हुए पंजाब प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने अपने अध्यक्ष का चुनाव बहुत ही सतही विचार स्तर पर किया वरना पंजाब का यह इतिहास रहा है कि इसकी राजनीति राष्ट्रीय चिन्ताओं को समाहित करते हुए सम्पूर्ण भारत की एकता के चारों तरफ घूमती रही है। यह सनद रहनी चाहिए कि पंजाब ने सरदार प्रताप सिंह कैरों जैसा राजनीतिज्ञ इस देश को दिया है जिन्होंने 60 के दशक के भीतर ही पंजाब को भारत का 'यूरोप' बना डाला था। एेसे पंजाब की धरती पर सिद्धू जैसे राजनीतिज्ञ की बिसात किसी एकांकी नाटक में मात्र किसी 'मजाकिये' से ज्यादा कुछ और नहीं हो सकती। राजनीति का अर्थ समाज व देश कल्याण होता है और इस काम में लगे हुए सभी राजनीतिज्ञों के बीच अपनी श्रेष्ठता साबित करना होता है न कि निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए समूचे संगठन को तहस-नहस करने का। जो व्यक्ति ऐसा करता है उसे राजनीति में रहने का अधिकार इसलिए नहीं होता क्योंकि वह उसी डाल को काटने का काम करता है जिस पर वह बैठा हुआ होता है। अपनी पार्टी को मजबूत होता हुआ जब कोई नेता देखता है तो उसका सीना गर्व से फूलने लगता है और उसमें जनता की सेवा करने का आत्मविश्वास बढ़ने लगता है परन्तु जो व्यक्ति राजनीति में अपना स्वार्थ सिद्ध करने की गरज से आता है उससे यह स्थिति इसलिए बर्दाश्त नहीं होती है क्योंकि पार्टी या संगठन में उसे अपने महत्व के खत्म होने की आशंका सताने लगती है। सिद्धू आज इसी दुर्भावना से ग्रसित व्यक्ति है क्योंकि कैप्टन अमरिन्दर सिंह के स्थान पर श्री चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमन्त्री बन जाने से समूचे पंजाब में कांग्रेस की स्थिति इस कदर मजबूत बन गई थी कि चन्नी के तीर ने सभी विपक्षी दलों के हाथों के तोते उड़ा दिये थे परन्तु चन्नी मन्त्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह के दो दिन बाद ही सिद्धू ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर हतप्रभ विपक्ष के हाथ में धारदार हथियार पकड़ा दिये। जो लोग राजनीति के पंडित हैं वे जानते हैं, समझ सकते हैं कि सिद्धू के इस कदम से राज्य में सबसे ज्यादा लाभ प्रमुख विपक्षी पार्टी अकाली दल को होने जा रहा है। मुख्यमन्त्री चन्नी इस स्थिति को कैसे संभाल पाते हैं यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा मगर इतना निश्चित है कि सिद्धू जो नुकसान अपनी पार्टी को पहुंचाना चाहते थे वह पहुंचा चुके हैं। एक बात और समझने वाली है कि सिद्धू ने श्री चन्नी के मुख्यमन्त्री चुने जाने के बाद पार्टी अध्यक्ष होने के नाते क्यों नहीं एक बार भी उनके चुनाव के बारे में कोई शब्द तक नहीं बोला? इससे स्पष्ट है कि वह स्वयं इस पद को पाना चाहते थे।संपादकीय :उरी पार्ट-2 की साजिशएक अक्टूबर को हम 18वें साल में प्रवेश कर रहे हैंएंजेला मर्केल की विदाईकन्हैया, मेवानी और सिद्धूपंजाब के नए मंत्रीकिसानों के भारत बन्द का सबब लोकतन्त्र में प्रदेश पार्टी अध्यक्ष का रुतबा बहुत ऊंचा होता है क्योंकि उसकी पार्टी का मुख्यमन्त्री उसके समक्ष केवल एक पार्टी कार्यकर्ता होता है और सरकार पार्टी की विचारधारा के अनुरूप संविधान के प्रावधानों के तहत ही चलती है। मगर जिस व्यक्ति में सत्ता की भूख इस कदर हो कि उसे केवल लोकतान्त्रिक पद्धति का एक पक्ष ही दिखाई पड़े तो वह व्यक्ति संसदीय लोकतन्त्र की अन्तर्निहित शासकीय पद्धति की बारीकियों को पहचान ही नहीं सकता है। इस मायने में मुख्यमन्त्री श्री चन्नी पूरी तरह परिपक्व राजनीतिज्ञ साबित हुए जिन्होंने अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में आज कहा कि सरकार पार्टी से बड़ी नहीं होती। यह पार्टी होती है जो मुख्यमन्त्री का चुनाव चुने हुए विधायकों के माध्यम से करती है। मगर 'सावन के अंधे को हमेशा हरा-हरा ही सूझता है' अर्थात जिस व्यक्ति को लेकतन्त्र के सही मायने तक न पता हों उसे मुख्यमन्त्री की कुर्सी के अलावा और कुछ दिखाई ही नहीं दे सकता। अतः ऐसे व्यक्ति को राष्ट्र की चिन्ता क्यों और कैसे हो सकती है? जबकि पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता का सीधा मतलब होता है पाकिस्तान के चेहरे पर सुर्खी आना। सिद्धू को विचार करना चाहिए था कि कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने उन्हें राष्ट्र विरोधी क्यों कहा? ऐसा सिद्धू के कामों की वजह से संभव हुआ क्योंकि पंजाब में कैप्टन के मन्त्रिमंडल में मन्त्री पद पर रहते हुए अपने मुख्यमन्त्री की यह सलाह नहीं मानी थी कि उन्हें पकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में नहीं जाना चाहिए था। मगर निजी स्वार्थ और रिश्तों की खातिर सिद्धू ने कैप्टन की सलाह नहीं मानी। वास्तव में सिद्धू को अपने मन्त्रिमंडल से बाहर करने के लिए कैप्टन के पास 2018 में यह कारण ही काफी था परन्तु तीन वर्ष बाद परिस्थितियां ऐसी बनी कि सिद्धू की वजह से ही कैप्टन को मुख्यमन्त्री पद छोड़ना पड़ा मगर सिद्धू को मुख्यमन्त्री पद तब भी नहीं मिला तो उन्होंने श्री चन्नी के अचानक पंजाब के राजनीतिक क्षितिज पर उभरी चमक से चुंधिया कर पूरी पार्टी को ही अंधेरे में धकेलने की चाल चल डाली।