सम्पादकीय

Punjab Congress Crisis: कांग्रेस के हाथ से उड़ता पंजाब! आखिर चौका लगाने का चस्का क्यूं?

Rani Sahu
20 July 2021 9:03 AM GMT
Punjab Congress Crisis: कांग्रेस के हाथ से उड़ता पंजाब! आखिर चौका लगाने का चस्का क्यूं?
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कांग्रेस के हाथ से उड़ता पंजाब! आखिर चौका लगाने का चस्का क्यूं?

पीयूष शर्मा। वो अपने खात्‍मे की स्क्रिप्ट लिखने पर उतारू हो चुकी है. स्याही भी सूखने लगी है, पर देश की सबसे पुरानी पार्टी है कि मानती ही नहीं. लगता है पंजाब के सियासी ड्रामे पर उसने तालियां ठोकवाने की कसम खा ली है. खुद से भी और….औरों से भी. जिस डाल पर बैठे हो जब कोई उसी को आरी लेकर काटने निकल पड़े और काट भी दे तो माथा टनकेगा ही.

माना कि बुलबुलों के पंखों में बंधे हुए कभी बाज नहीं रहते. चलो ये भी मान लेते हैं कि बुजदिलों और कायरों के हाथ कभी राज नहीं रहते पर आखिर इतनी जल्दबाजी की ज़रूरत भी क्या थी? पंज दरिया की धरती पर एक अध्यक्ष और चार कार्यकारी का चौका लगाने का चस्का क्‍यूं चढ़ा? आर्मी के कैप्टन अमरिंदर सिंह (Captain Amarinder Singh) की किताब के हिसाब से क्‍यूं नहीं चला गया? इस पहल के फायदे कम नुकसान ज्‍यादा गिनने पड़ेंगे. AAP की तारीफ में उन्होंने कसीदे क्या पढ़ दिए आलाकमान आप तो फ्लैट ही हो गए. समस्या को जड़ से सुलझाने के बजाय उस पर रंग बिरंगी चादर ओढ़ाकर फिर अपनी खाल बचा ली गई. या यूं कहे कि जान पहचान की वजह से उनकी लाज बचा ली गई.
इंसान गलतियों का पुतला है पर एक ही गलती बार-बार दुहराई जाए तो पुतले को पतले होते देर नहीं लगती. केरल, बंगाल और असम के विधानसभा चुनावों में लगे ताजातरीन झटके क्या काम थे कि आपने एक और अपने लिए खाई खोद ली. मामले को निपटाने के बजाय गुरू नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) को साधने की ज्‍यादा कोशिश की गई. ऐसे नेतृत्व का क्या करना, जो ये ही ना तय कर सके कि सूबे में पार्टी का मोर्चा कौन संभालेगा. चिंगारी को बुझाने के बजाय उसमें घी डालकर उसे सुलगाने का काम किया गया, जो अगले साल तक होने वाले विधान सभा चुनावों में अंगारा बन जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी. सिद्धू को अध्यक्ष बनाने के बाद भी स्थिति कोई सुधरने वाली नहीं. राह आसान होने के बजाय मुश्किल ही होती जाएगी. जट सिख के साथ जातिगत संतुलन साधकर हुनर दिखाने की कोशिश तो की गई पर क्या इनका पंच चुनावों में विपक्षियों को धराशायी कर पाएगा? ये थोड़ा मुश्किल है.
2004 से भगवा रंग में रंगे खटैक यानी सिद्धू हर बार दरवाजा खटखटाने से बाज नहीं आते. अमृतसर से सांसद बने, वो भी लोकसभा के तब तक तो सब बढ़िया था. फिर जब 2014 में अरुण जेटली क्या मैदान में आए शांति क्रांति में बदलने लगी. क्या करें….इन्हीं की जुबानी कि सर झुकाकर चलने की आदत पड़ जाए जिसको, उस इंसान के सर पर कभी ताज नहीं रहते. इसी लाइन पर कदम से कदम मिलाते हुए 2016 में जिस पार्टी से पहली बार सांसद बने उसी से दामन छुड़ाते हुए राहुल-प्रियंका गांधी की सरपरस्ती में हाथ का साथ देने 2017 में जुट गए. तब भी कहानी विधानसभा चुनावों की शुरू होने वाली थी.
17 में खतरा को कैप्टन ने कैसे निपटाया ये किसी से छुपा नहीं है. और तब से लेकर आज तक की रार भी किसी के कान में ना पड़ी हो, ऐसा संभव भी नहीं. वो कहते है ना…. हींग लगे ना फिटकरी और रंग भी चोखा हो जाए वालों की तादाद कम तो नहीं है. खैर मौका दिया जा रहा है तो सब चूके ही क्यों? पंजाब की सियासत पर पैनी नजर रखने वालों की मानें तो अगर ये सिद्धू-अमरिंदर वाला बवाल ना हुआ होता तो कांग्रेस का जलवा कायम था. पर राजासाहब की कार्यशैली सुधारने से ज्‍यादा गुरू को एडजस्ट करने की लीला किसे लील लेगी, ये अब किसी से छुपा नहीं. सीधे-सीधे कहें तो पंजाब के सियासी रण में यदि पंजा पाताल में पूरी बाजू समेत धंसता है तो कैप्टन-गुरू की बदौलत नहीं बल्कि आलाकमान की.
अध्यक्ष बनने के बाद भी राह आसान हो गई हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. एक उत्तर तो दूसरे को दक्षिण भागना ही है. भले ही नवजोत सिंह सिद्धू अब अध्यक्ष बनने के बाद आलाकमान को धन्यवाद देते हुए खुद को पुराना कांग्रेसी बता रहे हो. पर ये वही जनाब हैं जो एक समय यह भी कहने से नहीं चूके थे कि कांग्रेस तो अब मुन्नी से भी ज्‍यादा बदनाम हो गई है. उम्‍मीद है अब मुन्‍नी को लेकर यहां पर ज्‍यादा डिटेलिंग की जरूरत तो पड़ेगी नहीं. आप सब समझ ही गए होंगे. पर रात गई बात गई. लेटर पाने के बाद इस समय डोर टू डोर में सिद्धू बागियों को साधने में जुट गए हैं.
2018 में पाकिस्‍तान जाकर आर्मी चीफ बाजवा से गले मिलने के बाद सिदूध का कद लगातार पंजाब में अमरिंदर की नजरों में बीस होने के बजाय लुढ़कता ही गया. जो खेल मनोभूमि में चल रहा था, अब वो एक तरह से रणभूमि में आ चुका है. पप्‍पू नाम को ट्रेंडिंग में लाने वाले खैर अब तो अध्‍यक्ष बन गए और सरकार का सेहरा बांधे अमरिंदर अपने आप को अब छला हुआ महसूस कर रहे हैं. पर इन दोनों दिग्‍गजों के वॉर में अकालियों के चेहरे खिल गए हैं. दो की लड़ाई में तीसरा मलाई खाने के लिए अब अपने आपको तैयार करने में जुट गया है. देखना ये है कि करतारपुर कॉरिडोर तो अब खुल गया पर क्‍या दिल्‍लीवालों का पंजाब रास्‍ता इस बार खुल पाएगा?


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