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एक समय था जब अध्यापकों पर विद्यार्थी, अभिभावक एवं सम्पूर्ण समाज बिना किसी शर्त के विश्वास करता था। उस समय देश में साक्षरता दर बहुत कम थी
एक समय था जब अध्यापकों पर विद्यार्थी, अभिभावक एवं सम्पूर्ण समाज बिना किसी शर्त के विश्वास करता था। उस समय देश में साक्षरता दर बहुत कम थी। शिक्षक तथा शिक्षण संस्थान न के बराबर थे। शिक्षक का मान-सम्मान होता था तथा कोई भी व्यक्ति शिक्षक पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता था क्योंकि केवल शिक्षक ही ज्ञान का संवाहक एवं प्रेषक था। वर्तमान में समय, सोच, समाज एवं संसाधन बदले हैं। हज़ारों शिक्षण संस्थान उपलब्ध हैं, लाखों शिक्षक शिक्षण कार्य कर रहे हैं और करोड़ों विद्यार्थी इस ज्ञान गंगा में डुबकी लगा रहे हैं। ज्ञान-विज्ञान तथा संचार संसाधनों का जाल सा बिछ गया है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति साक्षर. सजग, समझदार एवं कानून को जानता है। कोई किसी को धोखा नहीं दे सकता, मूर्ख नहीं बना सकता तथा किसी का शोषण नहीं कर सकता। कानूनी प्रावधान बहुत कड़े हो गए हैं। समाज में प्रत्येक व्यक्ति भौतिक संसाधनों से सम्पन्न है। परस्पर आत्मनिर्भरता लगभग समाप्त हो चुकी है
भौतिक, सामाजिक, प्रशासनिक तथा शैक्षिक बदलावों ने शिक्षक की छवि को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया है। उसे सरकार, प्रशासन, नियमों तथा कानूनी प्रावधानों के अनुसार अपना शिक्षण कार्य करना है। इसमें किसी भी प्रकार की व्यक्तिगत भावनाओं तथा नियमों की परिधि से बाहर निकल कर कार्य करने का प्रावधान नहीं है। आज शिक्षक का मूल्यांकन करने के लिए विद्यार्थियों, अभिभावकों एवं समाज की दृष्टि बदल चुकी है। आचार्य चाणक्य के अनुसार शिक्षक कभी साधारण नहीं होता, सृजन और प्रलय को हमेशा अपनी गोद में पालने वाला व्यक्ति अब साधारण सा कर्मचारी तथा वेतनभोगी बन कर रह गया है। ऐसा भी नहीं है कि शिक्षा जगत में श्रेष्ठ, उत्कृष्ट, उदाहरणीय एवं अनुकरणीय शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं, परंतु अब उन्हें खोजने की सामाजिक, प्रशासनिक, शैक्षिक एवं राजनीतिक दृष्टि भी क्षीण हो चुकी है। विद्यार्थियों को मारना, पीटना, डराना तथा शारीरिक या मानसिक प्रताडऩा देना ज्ञान संचार का समाधान नहीं है। 'डर बिना घर नहीं' की परंपरागत धारणा पर आधारित पाठशालाओं में दंड विधान की यह परंपरा अब कानूनी रूप से पूर्णतया प्रतिबंधित है। संविधान के आर्टिकल 21 के अनुसार सभी लोगों को सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। 'राइट टू एजुकेशन एक्ट-2009' की धारा 17 (1) के अनुसार किसी भी बच्चे को शारीरिक सजा तथा मानसिक प्रताडऩा नहीं दी जा सकती। इसी कानून की धारा 8 और 9 के अनुसार किसी भी बच्चे के जाति या धर्म को देखकर भेदभाव नहीं किया जा सकता तथा उसे शिक्षा से वंचित नहीं रखा जा सकता। वहीं पर 'जूविनाइल जस्टिस कानून' की धारा 23 में प्रावधान है कि अगर किसी बच्चे या किशोर पर हमला, शोषण, उपेक्षा, शारीरिक एवं मानसिक तौर पर प्रताडि़त किया जाता है तो उसे 6 महीने की कैद या जुर्माना या दोनों सज़ाएं दी जा सकती हैं। यह धारा अध्यापकों के साथ-साथ माता-पिता तथा अभिभावकों पर भी लागू होती है।
'नैशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स' की गाइडलाइंस के अनुसार यदि शिक्षक की पिटाई से किसी छात्र की मौत हो जाती है या वह आत्महत्या कर लेता है तो उसे कानूनी कार्रवाई के अलावा तुरंत प्रभाव से सस्पेंड कर दिया जाता है, जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तथा दोषी पाए जाने पर कड़ी सज़ा का प्रावधान है। ऐसा भी देखा गया है कि जहां ये नियम या कानूनी प्रावधान दोषी को सज़ा तथा पीडि़तों को न्याय दिलाने का कार्य करते हैं, वहीं पर इन प्रावधानों का व्यक्तिगत रंजिश, धर्म, जाति, राजनीतिक दलों तथा संप्रदायों के एकतरफा हितों को साधने के लिए भी दुरुपयोग हुआ है। पिछले दिनों राजस्थान के जि़ला जालौर में एक सरस्वती विद्यालय में एक अध्यापक द्वारा दलित छात्र इन्द्र कुमार मेघवाल की पिटाई तथा मौत का मामला सामने आया। आरोप है कि पाठशाला के अध्यापक छैल सिंह ने मटकी से छात्र के पानी पीने से दलित छात्र की पिटाई की, फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। यह मामला पूरे देश में चर्चित है। देश में हर जगह धरने, प्रदर्शन हो रहे हैं। यह मामला छुआछूत एवं जातिवाद का रूप भी ले चुका है। हत्या तथा एससी एसटी एक्ट में आरोपी शिक्षक की गिरफ्तारी हो चुकी है। समाज के अनेक दलित, पिछड़े, शोषित, वंचित संगठन अध्यापक को केवल मृत्यु दंड की मांग कर रहे हैं। इस संदर्भ में पिछले दिनों बिलासपुर में भी विभिन्न अनुसूचित जातियों तथा अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों ने कैंडल मार्च से अपना कड़ा रोष व्यक्त करते हुए महामहिम राष्ट्रपति को जिलाधीश के माध्यम से अपना ज्ञापन सौंपा है। सच्चाई क्या है, यह तो पुलिस तथा गहन कानूनी जांच का विषय है लेकिन इस तरह के मामले जाति, सम्प्रदाय तथा धर्म की तथा राजनीति की आड़ में वास्तविकता से भी दूर हो जाते हैं। इसी कड़ी में कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश के जि़ला सोलन की सरकारी पाठशाला में एक अध्यापक द्वारा छात्र की पिटाई का वीडियो सामने आया है जो कि बहुत दुखद है।
शारीरिक दंड के ही संदर्भ में सोशल मीडिया पर आजकल एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें एक व्यक्ति बच्चे को बेरहमी से पीट रहा है। दिल दहलाने वाला यह वीडियो उपरोक्त घटना की वास्तविकता से दूर है। ऐसे समाचार समाज में नफरत तथा दुर्भावना का संचार करते हैं। हालांकि ऐसे मामले में किसी भी अध्यापक या प्रभावशाली व्यक्तियों का समर्थन बिल्कुल नहीं किया जा सकता। ये घटनाएं शिक्षक समाज के लिए शर्मनाक हैं। इससे समाज में शिक्षक का मान-सम्मान, गरिमा एवं प्रतिष्ठा कम होती है तथा सामाजिक एवं शैक्षिक व्यवस्था पर से विश्वास उठ जाता है। शिक्षकों को विद्यार्थियों को पीटने का कोई अधिकार नहीं है। किसी भी परिस्थिति में बच्चों को शारीरिक दंड तथा मानसिक रूप से प्रताडि़त नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों को प्रेमपूर्वक ज्ञान प्रदान करना चाहिए। वैसे संस्कारों तथा मर्यादाओं को भूल चुके, अनुशासनहीन, नशेड़ी बच्चों से परेशान अभिभावक, शिक्षक, सामाजिक संगठन, शैक्षिक एवं प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनेता पाठशालाओं में बच्चों के दुव्र्यवहार, अनुशासनहीनता तथा शिक्षा की गुणवत्ता में कमी होने पर दबी जुबान में चर्चा करते हैं, परंतु कानून के विरुद्ध कहने का किसी का हौसला नहीं होता। शिक्षकों को चाहिए कि वे समर्पित भाव से नियमों और कानूनों के प्रावधानों की परिधि में रहकर शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य करते हुए अपना कत्र्तव्य निर्वहन कर भविष्य निर्माण करें। वहीं पर अभिभावकों, विभिन्न सामाजिक संगठनों एवं राजनीतिक दलों से भी प्रार्थना है कि शिक्षक का मान-सम्मान एवं गरिमा पुन: प्रतिष्ठापित करें क्योंकि शिक्षक एक सामान्य वेतनभोगी कर्मचारी नहीं, बल्कि जीवन एवं भविष्य निर्माता है।
प्रो. सुरेश शर्मा
लेखक घुमारवीं से हैं
By: divyahimachal
Rani Sahu
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