सम्पादकीय

घोड़ी चढ़े को दंड

Subhi
11 March 2022 5:23 AM GMT
घोड़ी चढ़े को दंड
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पिछले दिनों राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में ऐसी शर्मनाक घटनाएं घटीं, जो सुर्खियां बन गईं । घोड़ी पर बैठ कर बारात जाते दलित दूल्हों को घोड़ी से उतार कर बेइज्जत किया गया और बारातियों के साथ मार-पीट हुई।

रत्नकुमार सांभरिया: पिछले दिनों राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में ऐसी शर्मनाक घटनाएं घटीं, जो सुर्खियां बन गईं । घोड़ी पर बैठ कर बारात जाते दलित दूल्हों को घोड़ी से उतार कर बेइज्जत किया गया और बारातियों के साथ मार-पीट हुई। दूल्हे और कुछ बाराती भी घायल हुए। बख्तरबंद पुलिस संरक्षण और प्रशासन की निगहबानी में दलित दूल्हों को घोड़ी पर बिठा कर बारात निकाली गई। इन घटनाओं को अति निंदनीय मानते हुए मुख्यमंत्री तक ने संज्ञान लिया। यह भारतीय सभ्यता पर कितना बड़ा प्रश्न चिह्न है। अन्य प्रदेशों में भी कमोबेश ऐसी घटनाएं होती रहती हैं।

दूल्हे को घोड़ी से उतारना भारतीय दंड संहिता की दो धाराओं और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आता है। भारत के संविधान की धारा पंद्रह के अंतर्गत 'मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध' के मूल अधिकार का भी हनन है।

दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारने वालों में उसी धर्म के लोग होते हैं, जिसके दूल्हे होते हैं। आज तक कोई ऐसा उदाहरण सामने नहीं आया कि मुसलिम, सिख, बौद्ध, ईसाई, जैन और पारसी धर्मों में अपने सहधर्मी दूल्हों को घोड़ी से उतार कर बेआबरू किया हो। या इन धर्मावलंबियों ने दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारने में किसी प्रकार का सहयोग किया हो। इसे जातीय अहंकार की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है।

गैर-अनुसूचित जाति के दूल्हे जब दलित मुहल्लों से निकलते हैं, तो दलित समाज के आबालवृद्ध तथा महिलाएं हाथ जोड़ कर दूल्हों और बारातियों का गर्मजोशी से स्वागत कर खुशी का इजहार करते हैं तथा जुहारी तक की जाती है। विपरीत इसके, जब दलित दूल्हे बाजे-गाजे के साथ गांव की गलियों से निकलते हैं तो परिवेश में जहर घुलने लगता है। ऐसा कभी नहीं हुआ जब दलितों ने अन्य जातियों के दूल्हों को घोड़ी से उतारने का अनैतिक कृत्य किया हो।

दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारने वाले उत्पीड़िकों में अगड़ी जातियों के वे लोग भी होतें हैं, जिनमें जली रस्सी के बल की तरह आज भी सामंती सोच विद्यमान है। अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आने वाली पिछड़ी जातियों के वे लोग भी हैं, जो आरक्षण का लाभ लेकर राजनीति और नौकरी के क्षेत्र में विकास के सोपान चढ़ने लगे हैं। जब आरक्षण की बात आती है, तो यही लोग दलितों को अपने साथ रखने का दम भरते हैं।

अनेक दलितों के पास घोड़ी है, बाजा है, जो उनका व्यवसाय भी है। वे दूसरे समाज के दूल्हों को अपनी घोड़ी और बाजे के साथ निकासी करवा सकते हैं। दूसरों के घर-आंगन खुशियां बिखेर आते हैं। मगर अपने इन्हीं साधनों का उपयोग अपने दूल्हों और बारातियों के लिए नहीं कर सकते हैं। एक लोकतांत्रिक देश में यह दासत्व की निशानी ही मानी जाएगी।

अस्पृश्यता को समाज का कोढ़ कहने वाले महात्मा गांधी ने कहा था- 'जब गांव में जाति बंधन टूटेंगे, छूआछूत का उन्नमूलन होगा और समानता आएगी। सही मायने में देश तभी आजादी के सुख का उपभोग करेगा।' गांधीजी का वह सपना आज भी अधूरा है, क्योंकि जातिभेद, छुआछूत और असमानता के चलते ग्रामीण जीवन वंचित वर्ग के लिए असह्य बना हुआ है।

आंबेडकर ने कहा था कि अनुसूचित जातियों के लिए गांव अस्पृश्यता और भेदभाव की कार्यशाला है। आजादी के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर देश भर में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, दूसरी ओर दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठने पर मारा-पीटा जाता है। घोड़ी से उतार कर अनादर किया जाता है। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली जिन मर्यादाओं और परंपराओं को दलित अपना मानता है, वही उसके लिए वर्जनाएं बन कर खड़ी हो जाती हैं। यह कितना बड़ा कलंक है।

गांव में किसी भी जाति की बेटी को अपनी बेटी मानने की सद्भावनापूर्ण रिवायत है। मगर किसी दलित की बेटी के ब्याह में उसका दूल्हा घोड़ी पर बैठता है, तो उसे घोड़ी से उतार कर पीटने जैसा जघन्य अपराध किया जाता है। इससे बड़ा संत्रास क्या होगा कि गांव की उस बेटी का अपमान गांव की अन्य बेटियों के सम्मान से इतर है। भावना से जुड़ा यह एक ऐसा अपमान है, जिसका घाव ताजिंदगी बना रहता है।

अत्याचार, अपमान और उत्पीड़न के ऐसे थपेड़ों से आजिज दलित वर्ग जब करवट लेने की सोचता भर है, तो कितने ही संगठनों की आंखें कौंधती हैं। धर्म के अनुयाइयों की संख्या खिसकने की चिंता में समुद्र में सुनामी लहरें उठती नजर आती हैं। संगठनों के वे लोग सौ सब्जबाग दिखा कर दलितों को उसी धर्म की लक्ष्मण रेखा लांघने से रोकते हैं।

लेकिन जब दलित वर्ग सांस-सांस, कदम-दर-कदम इस प्रकार के तिरस्कार और बेइज्जती के घूंट पीता जीवन जीता है, तो इन्हीं संगठनों को सब कुछ सामान्य, सहज, मर्यादित और शास्त्रोक्त लगता है। आज समय की मांग है कि समस्त सामाजिक संगठन दलितों के साथ होने वाले ऐसे अत्याचारों के विरुद्ध खड़े हों। आज दलित वर्ग सहानुभूति और समरसता की अपेक्षा सम्मान और समानता चाहता है।


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