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Written by जनसत्ता: अहमदाबाद बम धमाकों के मामले में अड़तीस दोषियों को फांसी और ग्यारह को ताउम्र कैद की सजा इस बात का कठोर संदेश है कि आतंक फैलाने वालों के लिए कानून में नरमी की कोई जगह नहीं है। गौरतलब है कि गोधरा कांड का बदला लेने के लिए 26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद में आतंकी संगठनों ने एक के बाद एक इक्कीस सार्वजनिक जगहों पर धमाके किए थे।
इसमें छप्पन लोगों की जान गई थी और दो सौ से ज्यादा लोग घायल हो गए थे। घटना को भले चौदह साल गुजर चुके हों, लेकिन पीड़ित आज भी इसका दंश झेल रहे हैं। इसलिए सिर्फ पीड़ित ही नहीं, बल्कि देश का हर नागरिक भी मामले की सुनवाई करने वाली अदालत से यही अपेक्षा कर रहा होगा कि वह दोषियों को ऐसी सजा दे जो आतंकी मंसूबे पालने वालों के लिए सबक के तौर पर देखी जाए।
विशेष अदालत ने सजा सुना कर मामले को अंजाम तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर पीड़ित परिवारों को असल न्याय तो तभी मिलेगा, जब सभी दोषी फांसी पर लटकाए जाएंगे। अभी हर दोषी अपने बचाव में ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाएगा। पहले हाईकोर्ट, फिर सुप्रीम कोर्ट के रास्ते खुले हैं। न्याय प्रक्रिया कितनी लंबी और जटिल होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। विशेष अदालत को ही इस काम में चौदह साल लग गए!
विशेष अदालत का यह फैसला वाकई ऐतिहासिक और साहसिक है। एक साथ अड़तीस लोगों को फांसी! इससे पहले राजीव गांधी हत्याकांड के छब्बीस दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। सच तो यह है कि इस हमले के बाद पुलिस और अदालत दोनों के लिए ही काम आसान नहीं रहा होगा। लंबी जांच-पड़ताल के बाद पुलिस ने आरोपियों को पकड़ा था।
आरोपियों के खिलाफ सबूतों को जुटाना और उन्हें सिलसिलेवार अदालत के सामने रखना सबसे जटिल काम होता है। एक भी कमजोर सबूत आरोपी के पक्ष में चला जाए तो यह पुलिस के लिए ही नहीं, पीड़ित पक्ष के लिए भी और पीड़ादायक हो जाता। इस मामले में एक हजार से ज्यादा लोगों के बयान दर्ज हुए और बारह सौ से ज्यादा लोगों की गवाहियां हुईं। हमारी मौजूदा न्याय व्यवस्था की भी अपनी सीमाएं हैं।
जाहिर है, समय लगना ही था। इसलिए अब देखने की बात यह होगी कि न्यायिक प्रक्रिया और कानूनी दांवपेचों का फायदा उठाते हुए दोषी कब तक ऊपरी अदालतों में मामले को लटकाए रखने में सफल हो पाते हैं। न्याय प्रणाली के लिए यह कम बड़ी चुनौती नहीं होगी। पहले भी यह देखने में आता ही रहा है कि ऊपरी अदालतों से भी फांसी की सजा की पुष्टि के बाद भी फंदे तक पहुंचने में दोषी को सालों लग जाते हैं। ऐसे में पीड़ित के लिए न्याय का कोई मतलब नहीं रह जाता।
एक बात और। सिर्फ अहमदाबाद का हमला ही नहीं, ऐसे ही दूसरे आतंकी हमले भी जिस बात की ओर सबसे ज्यादा इशारा करते रहे हैं, वह है हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी। नवंबर 2008 में मुंबई में आतंकी हमला हुआ था। उससे पहले दिसंबर 2001 में संसद पर हमला हुआ था। बाद में भी कई बड़े आतंकी हमलों ने देश को दहलाया। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर हमारी सुरक्षा और खुफिया एजंसियां करती क्या रहती हैं। देश के सामने भीतर और बाहर आतंकी चुनौतियां कम नहीं हैं। अभी विशेष अदालत में दोषियों को सजा सुनाई गई है, यह अच्छी बात है, पर ऐसे हमले एक मजबूत सुरक्षा और खुफिया तंत्र की जरूरत को भी रेखांकित तो करते ही हैं।