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तवलीन सिंह: उन्होंने बताया कि अमेरिका में बहुत सारी मुसलिम और ईसाई संस्थाएं अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की खबरें फैला रही हैं। काफी हद तक इन संस्थाओं का प्रचार निरा बकवास है। मसलन, मुझे एक पत्र मिला है 'इंडियन अमेरिकन मुसलिम' नाम की संस्था का, जिसमें लिखा है कि 'ग्लोबल हिंदू हेरिटेज फाउंडेशन' ने सेन फ्रांसिसको में चंदा इकट्ठा करना शुरू किया है भारत में पचहत्तर गिरजाघरों को बचाने के नाम पर। इस पत्र में यह भी लिखा गया है कि जबसे मोदी सरकार बनी है, भारत के ईसाई समाज पर जुल्म हो रहा है।
इससे याद आया मुझे वह झूठा प्रचार, जो शुरू किया गया था मोदी के प्रधानमंत्री बनने के फौरन बाद, जिसका संदेश था कि गिरजाघरों पर हमले हो रहे हैं हिंदुत्ववादियों द्वारा। तहकीकात के बाद मालूम हुआ कि जिन गिरजाघरों की बात हो रही थी, उन पर हमले जरूर हुए थे, लेकिन उनके पीछे मामूली चोर थे, हिंदुत्ववादी नहीं। मगर ऐसी बातें जितनी भी मैंने न्यूयार्क में अपने दोस्तों को समझाने की कोशिश की, मुझे लगा कि उनसे कोई फर्क नहीं पड़ा। मोदी की छवि उनकी नजरों में एक ऐसे व्यक्ति की है, जिसकी तुलना तानाशाहों से की जाती है। कुछ दोष मोदी का है और कुछ उनके समर्थकों का।
मोदी का दोष यह है कि जब भी मुसलमानों पर अत्याचार करते हैं उनके समर्थक और संघ की विचारधारा से प्रभावित लोग, वे चुप रहते हैं। सो, संदेश यही जाता है कि मुसलमानों पर हिंसक हमले उनकी नजरों में अत्याचार नहीं है। यह संदेश उनके मुख्यमंत्रियों को समझ में पूरी तरह आ गया है, सो कभी मध्य प्रदेश के गृहमंत्री कहते हैं कि जो लोग दंगा-फसाद में शामिल होंगे, उनके घर गिरा दिए जाएंगे। घर तोड़े जाते हैं सिर्फ मुसलमानों के और प्रधानमंत्री की तरफ से निंदा के दो शब्द नहीं आते हैं।
पिछले हफ्ते महाराष्ट्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने घोषणा की एक नई सरकारी समिति की, जो तफ्तीश करेगी उन लोगों की, जिन्होंने अंतर्धार्मिक शादी की है। यानी 'लव जिहाद' को रोकने के लिए अब सरकारी अधिकारियों को लोगों के घरों में घुसने की खुली छूट मिल गई है। ऐसा करने की वजह महाराष्ट्र सरकार ने श्रद्धा वालकर की उसके मुसलिम प्रेमी के हाथों की गई बर्बर हत्या बताई गई है। मगर उसके साथ अगर किसी हिंदू मर्द ने ऐसा किया होता, तो क्या सरकार ऐसा कदम उठाती?
सरकारों को कोई अधिकार नहीं होना चाहिए आम लोगों के निजी रिश्तों में दखल देने का, इसलिए कि इसी तरह शुरू होता है लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने का काम। महाराष्ट्र के नागरिकों की समस्याएं बहुत सारी हैं। बेरोजगारी की समस्या है।
घर से काम तक पहुंचने के लिए इतनी बड़ी समस्या है कि ट्रेनों में भीड़ के अलावा समस्या है गुंडों से बचने की, और महिलाओं के लिए उन दरिंदों से बचने की, जो सफर करते हैं सिर्फ किसी महिला के साथ बलात्कार करने के इरादे से। इस तरह की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना सरकार का काम है, लेकिन इनको अनदेखा करके लगे हुए हैं महाराष्ट्र के शासक लोगों के घरों में घुस कर उनके निजी जीवन में दखल देने में। प्रधानमंत्री चुप हैं।
बिल्कुल वैसे जैसे चुप रहे थे जब देश के गृहमंत्री ने बांग्लादेशी घुसपैठियों को दीमक कहा था। बिल्कुल वैसे जैसे चुप रहे थे जब उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के घर तोड़े गए थे, बिना उनका अपराध किसी अदालत में साबित हुए।
पिछले हफ्ते मोदी के समर्थकों ने शाहरुख खान की आने वाली पिक्चर पर पाबंदी लगाने की मांग की, इसलिए कि 'बेशर्म रंग' के गाने पर दीपिका पादुकोण नाचती दिखती हैं भगवा रंग की बिकिनी पहने, शाहरुख खान के साथ, जिसने हरे रंग का कुर्ता पहना है। क्यों न लगे लोगों को कि लोकतांत्रिक अधिकार खतरे में हैं?
विदेशों में प्रधानमंत्री मोदी की छवि बिगड़ने के कारण और भी हैं। कई पत्रकार, पत्रिकाएं और अखबार हैं, जिनके पास केंद्र सरकार के अधिकारी पहुंचे हैं छापे मारने, जब उन्होंने मोदी सरकार की आलोचना की है। कई बार तो सच बोलने के बाद ऐसे छापे पड़े हैं जैसे कोविड के दौर में उन पर खास निगरानी रखी गई थी, जिन्होंने गंगाजी में बहती हुई लाशें दिखाई थी या श्मशानों के सामने लंबी कतारें।
ऐसा अगर इन लोगों ने किया न होता, तो प्रधानमंत्री को कैसे मालूम पड़ता कि कोविड को रोकने में उनके अधिकारी नाकाम रहे हैं? टीकाकरण जब युद्ध स्तर पर हुआ और महामारी को रोकने में हम सफल हुए, तो दुनिया भर में प्रधानमंत्री की खूब प्रशंसा हुई थी।
मोदी कई बार कह चुके हैं कि वे भारत को दुबारा विश्वगुरु के रूप में देखना चाहते हैं और वे ऐसा करके दिखाएंगे। समस्या यह है कि ऐसा तभी संभव होगा, जब विश्व कि नजरों में मोदी स्पष्ट कर पाएंगे कि वे ऐसा भारत बना रहे हैं, जिसमें हर नागरिक के लोकतांत्रिक अधिकार पूरी तरह सुरक्षित हैं।
एक वह दौर था जब लोकतंत्र को ताक पर रख दिया था किसी प्रधानमंत्री ने और वह था आपातकाल का दौर, जब इंदिरा गांधी ने हमारे सारे लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए थे, देश को बचाने के बहाने। जब जनता को मौका मिला आपातकाल पर अपनी राय व्यक्त करने का, तो इंदिरा गांधी को रायबरेली में हारना पड़ा और उनके बेटे संजय को अमेठी में। क्या मोदी भूल गए हैं वह दौर? क्या भूल गए हैं कि जनता समझती है अपने लोकतांत्रिक अधिकार?