सम्पादकीय

जनहित और जनकल्याण: बुनियादी सवालों पर संसद में मुठभेड़

Gulabi
19 Sep 2021 6:03 AM GMT
जनहित और जनकल्याण: बुनियादी सवालों पर संसद में मुठभेड़
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जनहित और जनकल्याण के युगांतरकारी अनेक विधेयक संसद में पारित हुए हैं

जनहित और जनकल्याण के युगांतरकारी अनेक विधेयक संसद में पारित हुए हैं। संसद की सकारात्मक भूमिकाओं का एक इतिहास है। पर इन दिनों हमारे माननीय मंत्रीगण, सांसद और विधायक सदनों में जिस तरह लड़ते-झगड़ते हैं, शायद ही किसी लोकतांत्रिक देश में वैसी मुठभेड़ें होती हों। मुठभेड़ हमेशा नकारात्मक अर्थ में ही नहीं होती, उसके सकारात्मक प्रयोजन भी होते हैं। मौजूदा हालात में कुछ योजनागत कार्यों, मुद्दों और जनाधिकारों के लिए भी कोई सांसद सवाल-जवाबों की मुठभेड़ करता है, तो वह अपने दायित्वबोध को ही प्रकट करता है। इस दृष्टि से अंग्रेजी में आई और एक साथ कई भाषाओं में अनूदित हो रही भालचंद्र मुंगेकर की पुस्तक माई एनकाउंटर इन पार्लियामेंट एक अच्छी नजीर पेश करती है।

इसे पढ़ना भी मुठभेड़ से ही गुजरना है। सांसद मुंगेकर राज्यसभा में कमजोर वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर आए थे। माननीय सांसद की यह कोई साहित्यिक कृति नहीं है। हालांकि उनकी आत्मकथा मेरी हकीकत ने मराठी साहित्य में अलग पहचान बनाई है। वह आंबेडकरवादी शिक्षाविद हैं, योजना आयोग के सदस्य रह चुके हैं और मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति तथा एडवांस्ड स्टडी, शिमला के चेयरपर्सन भी रहे हैं। संसद में वह उस परंपरा के वाहक हैं, जिसमें दलितों, आदिवासियों के हक में मुठभेड़ करने वाले डॉ. आंबेडकर के बाद कई नेता आए, पर वैचारिक मुहिम में वे कमजोर रहे।
दलित, आदिवासियों की ओर से यह शिकायत आम रहती है कि कोटे से संसद में जाने वाले उनके प्रतिनिधि उनके सवालों को लेकर सरकारों से मुठभेड़ नहीं करते। वे जिन दलों से चुनकर जाते हैं, उनके लिए ही काम करते नजर आते हैं। वे दलित उत्पीड़न, दुर्लभ होती शिक्षा, व्यवसाय और कला-संस्कृति के तमाम लोकतांत्रिक क्षेत्रों में सांविधानिक भागीदारी के लिए कोई मुठभेड़ नहीं करते। कई दफा वे मौलिक अधिकारों के सवाल तक नहीं उठाते। हम संसद में नकारात्मक मुठभेड़ें देखने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। हाल में हमने सांसद बनाम मार्शल मुठभेड़ देखी ही है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने संसद में 'गुणवत्तापूर्ण बहस' न होने को खेदजनक माना। उनका कहना था कि गुणवत्तापूर्ण बहस की कमी के कारण इन दिनों बनाए जा रहे कानूनों में स्पष्टता की कमी है।
ऐसे समय में हमें उन सांसदों और मंत्रियों के उदाहरण सामने लाने चाहिए, जिन्होंने संसद में न केवल स्वस्थ व गुणवत्तापूर्ण बहसें कीं, बल्कि सार्थक मुद्दे उठाए। एक नजीर प्रो. मुणगेकर की दस्तावेजी किताब है, जिसमें दर्ज है कि जब दलितों-आदिवासियों के विकास के लिए मुकर्रर किए गए बजट की मांग उठी थी, तब 7,044 करोड़ रुपये राष्ट्रमंडल खेलों के लिए (2010) खर्च कर दिए गए थे। वह मुद्दा सांसदों के लिए मुठभेड़ की वजह बना था, क्योंकि वह धन दलितों-आदिवासियों के कल्याण पर खर्च होना था। मुठभेड़ संख्या तीन में सांसद ने निजी व पेशेवर संस्थानों और डीम्ड यूनिवर्सिटीज में फीस निर्धारण और शिक्षा की स्थिति में सुधार लाने के लिए निष्पक्ष जांच की मांग उठाई और खासकर 12 वीं पंचवर्षीय योजना में एससी, एसटी, ओबीसी और गरीब मुस्लिम वर्गों के बालक-बालिकाओं के लिए गुणकारी और समान-शिक्षा निर्धारण के लिए सदन में तथ्यों-आंकड़ों के साथ मुठभेड़ की। मुठभेड़ संख्या चार खैरलांजी के संदर्भ में की गई, जिसमें कहा गया कि 'देश की एक चौथाई आबादी यानी एससी, एसटी को शिक्षा, संपत्ति और समाज व्यवस्था में हाशिये पर धकेल कर देश का विकास होना संभव नहीं है। इनके खिलाफ उत्पीड़न के करीब डेढ़ लाख मामले दर्ज हैं' और दलित ऐक्ट प्रभावी नहीं दिख रहा।
मुंगेकर के मुताबिक, हम हिंदी में पढ़ाई कर अपने पैरों पर खड़े होना चाहते हैं, पर हिंदी सप्ताह मनाने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री करते आ रहे हैं। हम विज्ञान, इंजीनियरिंग, मेडिकल, कानून आदि की पढ़ाई हिंदी में कराने की बात करते हैं, पर वास्तविकता हमें आईना दिखाती है। हिंदी के खिलाफ अंग्रेजी वालों का उपेक्षा भाव किसी से छिपा नहीं है। क्या हमें भूल जाना चाहिए कि 2012 में एक आदिवासी छात्र अनिल कुमार मीना ने एम्स में आत्महत्या की थी, क्योंकि हिंदी माध्यम से एमबीबीएस की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ पास करने वाले मीना को उसके सीनियरों ने हिंदी को लेकर परेशान किया था? हम डॉ. पायल तड़वी और रोहित वेमूला की आत्महत्याओं को इससे संबद्ध न करें, तब भी वंचित वर्गों के हक में विभिन्न शिक्षा संस्थानों में स्वस्थ वातावरण निर्मित करना अपेक्षित तो है ही। कुल 216 पृष्ठों वाली और 45 मुठभेड़ों की इस दस्तावेजी किताब की हर पंक्ति संसद में बोलती, सवाल उठाती-सी महसूस होती है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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