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- सार्वजनिक अवमूल्यन
हिमाचल विधानसभा का बजट सत्र अगर चलचित्र के मानिंद और अपनी रूह में नाटकीयता भरते हुए व्यवहार करेगा, तो जागरूक समाज की टिप्पणियां निराशावादी ही होंगी। तहजीब के खोखले और राजनीति के बुलंद नारों के बीच शुक्रवार की बहस में एक मंत्री के अल्फाज और बदले में विपक्ष का व्यवहार, एक तरह से मतदाताओं का उपहास ही नहीं कर रहा था, बल्कि हिमाचल के उच्चारण भी बदल रहा था। सार्वजनिक जीवन में आ रही गिरावट के कई उदाहरण हैं, लेकिन मसला सामाजिक भूमिका का इससे भी बड़ा है और इसलिए हमने अपने नजदीकी लोकतंत्र में पाल-पोस कर ऐसे चेहरे तैयार कर लिए हैं जो अब विधानसभा सत्र में अवरोधक तत्व की तरह दिखाई दे रहे हैं। इसका विश्लेषण कई तहों पर करना होगा और सर्वप्रथम स्थानीय निकायों के चुनावी वातावरण में समाज खुद में पैदा हो रहे अवमूल्यन पर गौर करे कि वहां हम किस तरह निर्वस्त्र हो रहे हैं। आखिर छोटी सी इकाई में भी हारता कौन है। क्या हम किसी सुलझे, ईमानदार या सीधे रास्ते पर चलने वाले को यह अवसर देते हैं कि वह हमारी पंचायत या नगर निगम का सदस्य बने। आज हर पंचायत हम नागरिकों की निगाह के आगे बिक रहा सामान है, जहां सिर्फ ठेकेदारी हो रही है या दिहाड़ी में लिपटी मनरेगा जैसी योजनाएं हमारी सामाजिक उर्वरता पर पैबंद हैं।
क्रेडिट बाय दिव्यहिमाचल