सम्पादकीय

सार्वजनिक अवमूल्यन

Rani Sahu
28 Feb 2022 6:59 PM GMT
सार्वजनिक अवमूल्यन
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हिमाचल विधानसभा का बजट सत्र अगर चलचित्र के मानिंद और अपनी रूह में नाटकीयता भरते हुए व्यवहार करेगा

हिमाचल विधानसभा का बजट सत्र अगर चलचित्र के मानिंद और अपनी रूह में नाटकीयता भरते हुए व्यवहार करेगा, तो जागरूक समाज की टिप्पणियां निराशावादी ही होंगी। तहजीब के खोखले और राजनीति के बुलंद नारों के बीच शुक्रवार की बहस में एक मंत्री के अल्फाज और बदले में विपक्ष का व्यवहार, एक तरह से मतदाताओं का उपहास ही नहीं कर रहा था, बल्कि हिमाचल के उच्चारण भी बदल रहा था। सार्वजनिक जीवन में आ रही गिरावट के कई उदाहरण हैं, लेकिन मसला सामाजिक भूमिका का इससे भी बड़ा है और इसलिए हमने अपने नजदीकी लोकतंत्र में पाल-पोस कर ऐसे चेहरे तैयार कर लिए हैं जो अब विधानसभा सत्र में अवरोधक तत्व की तरह दिखाई दे रहे हैं। इसका विश्लेषण कई तहों पर करना होगा और सर्वप्रथम स्थानीय निकायों के चुनावी वातावरण में समाज खुद में पैदा हो रहे अवमूल्यन पर गौर करे कि वहां हम किस तरह निर्वस्त्र हो रहे हैं। आखिर छोटी सी इकाई में भी हारता कौन है। क्या हम किसी सुलझे, ईमानदार या सीधे रास्ते पर चलने वाले को यह अवसर देते हैं कि वह हमारी पंचायत या नगर निगम का सदस्य बने। आज हर पंचायत हम नागरिकों की निगाह के आगे बिक रहा सामान है, जहां सिर्फ ठेकेदारी हो रही है या दिहाड़ी में लिपटी मनरेगा जैसी योजनाएं हमारी सामाजिक उर्वरता पर पैबंद हैं।

पांच नगर निगमों की चुनावी परिपाटी के बीच होता सामाजिक मंथन बताता है कि हमारे लोकतंत्र की औकात क्या है। अब तो मेयर भी भेड़ बकरियों की तरह राजनीति के हरकारे बन चुके हैं और जहां एक नई तरह की नौकरशाही-अफसरशाही हांकी जा रही है। समाज जो अपने गली, मोहल्ले, गांव या शहर में बो रहा है, उसी को विधानसभा मंे काट रहा है। यह राजनीतिक उन्माद है, जिसमें आम नागरिक भी जीना चाहता है। वह चुनाव में जाति, संप्रदाय, क्षेत्र और स्वार्थ ढूंढते हुए अपनी बोली लगाना चाहता है। उसके लिए राजनीति अब सिद्धि है या अपुष्ट संभावनाओं का खजाना, जहां डुबकी लगा कर बार-बार कुछ खोजना है। दरअसल हिमाचल में वित्तीय संसाधनों के आबंटन का घिनौना खेल शुरू हो चुका है। हर कोई भुजाएं फैलाए या भुजाएं खड़काए पाना चाहता है। जिस प्रदेश में वित्तीय अनुशासन या जवाबदेही के लिए कोई जगह न बचे, वहां धक्का-मुक्की ही तो होगी। जिस प्रदेश में शराब की दुकान में अवैध शराब बिकने लगे या जहां औद्योगिक विकास में अवैध फैक्टरियों का विकास शुरू हो जाए, वहां आंख से धूल कौन निकालेगा। हम अपने मसले का हल सुशासन में देखने के बजाय राजनीतिक पूंछ बन कर देखने लगे हैं। राजनीतिक पार्टियों के लाभकारी पद या कार्यकर्ताओं का एहसास उस फरमाइश में समाहित है, जहां हर कार्यकर्ता कोई न कोई सरकारी स्थानांतरण करता रहता है।
आज तक किसी सरकार ने यह गौर नहीं कि हिमाचल का साहित्य केवल सरकारी क्षेत्र में ही क्यों पैदा हो रहा है। कई आला आफिसर अपनी संवेदना के कारण कवि बन गए या दफ्तरों में कविता लिखना ही ईमानदारी का सबब है। अब तो कुछ आला अधिकारी गीत-संगीत या नाटी में महारत हासिल करके लोकप्रिय होना चाहते हैं। एक जिला के पुलिस प्रमुख अपनी गायन शैली में इतने माहिर हैं कि उन्हें कानून-व्यवस्था भी गायन शास्त्र में सुनाई देती है। दरअसल राजनीति और सामाजिक नेतृत्व के बीच कोई असमानता नहीं बची। यह हमारे स्वार्थ पर निर्भर करता है कि उसकी भरपाई कैसे हो रही है और यही अंतर हमारे बीच की नैतिकता को लेकर भी है। हमें तब नजर आता है जब हम लाभार्थी नहीं होते। क्या हिमाचल के हर स्कूल-कालेज या शिक्षण संस्थान के सांस्कृतिक या वार्षिक समारोहों में हम नेताओं के बजाय अपने-अपने क्षेत्र की विभूतियांे को नहीं बुला सकते या गांव की छिंज में किसी नेता का आगमन हमें इसलिए पसंद है कि वह अपने पल्लू से कुछ चवन्नियां या अठन्नियां झाड़ देगा। इसलिए शुक्रवार के दिन विधानसभा के जिस नजारे से हमें क्षोभ हुआ, वह दरअसल हमारे वजूद की निशानी बन चुका है। हमारी बस्ती में जिस तरह के राजनीतिक गिरोह घूम रहे हैं, उसकी उत्पत्ति से पैदा हो रहे नेता अपनी भाषा और अपने किरदार से यही नजारा पेश करेंगे। विधानसभा के आचरण में राज्य की बहस का गिरता स्तर अगर आगे चलकर और गिरता है, तो ताज्जुब नहीं होगा, क्योंकि सियासी किरदार में समाज ने अपना सबसे निम्न चरित्र भरना शुरू किया है।

क्रेडिट बाय दिव्यहिमाचल

Rani Sahu

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