सम्पादकीय

चुनाव की मनोवैज्ञानिक स्थिति

Rani Sahu
11 March 2022 7:07 PM GMT
चुनाव की मनोवैज्ञानिक स्थिति
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चुनाव अब वन काटुओं की तरह आ रहे हैं और एक तरह मुद्दा विहीन जंगल को काट कर हतप्रभ करते हैं

चुनाव अब वन काटुओं की तरह आ रहे हैं और एक तरह मुद्दा विहीन जंगल को काट कर हतप्रभ करते हैं। हकीकत और बौद्धिक बहस से कहीं दूर और मध्यम वर्ग से किनारा करते हुए चुनाव पिछली परंपराओं को झुठला रहे हैं और जनता को बरगला रहे हैं। पुनः लौटती सरकारों के पदचाप ने भाजपा के करिश्मे को इतना आगे बढ़ा दिया है कि अब आगामी चुनावों के दुर्ग इंगित हैं। यानी कल हो न हो जैसै वाक्यों से किनारा करती हकीकत अब हिमाचल जैसे राज्य के लिए मिशन रिपीट के नारे को बुलंद कर रही है। यह इसलिए भी कि उत्तराखंड से सटे हिमाचल की राजनीतिक हवाएं और मौसम काफी हद तक मिलते हैं और एक साझी मनोवैज्ञानिक बिसात भाजपा का कार्य आसान करती है। अपनी संभावनाओं से दूर हटती कांग्रेस के तेवर और नखरे नहीं बदले, तो हिमाचल का मुकाबला इस बार अति कठिन होता जाएगा। विधानसभा के 2017 में हुए चुनाव में भाजपा ने 48.8 प्रतिशत जबकि कांग्रेस ने 41.7 प्रतिशत मत हासिल किए थे। यानी दोनों पार्टियों के बीच करीब सात प्रतिशत के अंतर को बटोरना या सहेजना इस साल के अंत में होने जा रहे चुनावों को अग्नि परीक्षा में डालते हैं।

कांग्रेस परंपरागत तरीके से आगे बढ़ रही है, जबकि भाजपा ने अभी जो सोच रखा है, वह सामने नहीं आया है। मसलन चार उपचुनावों की हार के बावजूद भाजपा ने अपने मोहल्ले को आगाह नहीं किया है, फिर भी चार राज्यों में मिली जीत पार्टी की रणनीति को स्पष्ट करते हुए बताती है कि हिमाचल में संघ परिवार आंतरिक तौर पर किस परिपाटी पर चल रहा होगा। हिमाचल में न तो हिंदुत्व का कार्ड चलता है और न ही जातीय आधार पर राज्य की राजनीतिक हिस्सेदारी सामने आती है, फिर भी भाजपा के प्रति अपनत्व की भावना का सम्मोहन एक ऐसा परिदृश्य बना चुका है, जहां गांव की औरतें मोदी का कद पहचानती हैं। कांग्रेस इससे पूूर्व किसान आंदोलन में आक्सीजन फूंक कर अपने फेफड़े दिखाती रही, लेकिन पंजाब ने इस योगदान का कोई श्रेय नहीं दिया। कारण पार्टी की भीतरी कमजोरियांे में छिपा है या कांग्रेस अब चुनाव लड़ने का हुनर तथा एकसाथ चलने का रास्ता भूल रही है। ऐसे में अगर आज हिमाचल कांग्रेस से पूछा जाए कि चुनाव तक उसका प्रदेशाध्यक्ष या मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा, तो गहन सन्नाटों के भीतर केवल खुसर-फुसर ही होगी। इसमें दो राय नहीं कि उपचुनावों में पार्टी एकजुट दिखाई दी, लेकिन वहां सिर्फ जनता के सरकार के प्रति गुस्से से कांग्रेस की झोली भरी थी, जबकि नेताओं के भाषण आज भी अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग सुना रहे हैं। लामबंद होने और बेलगाम होने से अर्थ जब तक सत्ता के घोड़ों को कंठस्थ नहीं होंगे, कांग्रेस को यह समझ लेना होगा कि इस बार एक अलग भाजपा से पाला पड़ा है। अगर विधानसभा के बजट सत्र का हवाला लें तो निश्चित रूप से कांग्रेस के कई नेताओं ने अपने वक्तव्यों से यह साबित जरूर किया है कि पार्टी के पास दमदार वक्ता व हस्तियों की कमी नहीं, लेकिन विरोध को जीत में बदलने की शक्ति व सामर्थ्य को साबित करने की कमी है।
कांगेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव में लॉजिक घट रहा है और भाजपा की आंतरिक शक्ति के रूप में आरएसएस हमेशा एक मनोवैज्ञानिक पिच खड़ी कर देता है। इसी के बीच ब्रांड केजरीवाल ने पंजाब में जड़ें जमा कर, माहौल में कई करवटें जोड़ी हैं। यानी इस बार हिमाचल का मनोवैज्ञानिक चुनाव दिल्ली की पृष्ठभूमि से भी होगा, जहां करीब पांच लाख व्यस्क प्रदेश वासी रहते हैं। पंजाब की केजरीवाल सरकार पंजाब के हिमाचली संदर्भों को पुष्ट करके हिमाचल की दोनों पार्टियांे को विचलित कर सकती है। ध्यान रहे कि जब विजय सिंह मनकोटिया ने बसपा का दामन थाम कर सोशल इंजीनियरिंग की कोशिश की थी, तो एक सीट जीतते हुए सात फीसदी मत हासिल किए थे। यही मत अगर पिछले चुनाव के भाजपा व कांग्रेस के अंतर से आप के पक्ष में निकल जाएं, तो परिस्थितियां कितनी नाजुक होंगी। यह मानना पड़ेगा कि बिना किसी बड़े उद्देश्य के भी आप अगर अपनी उपस्थिति बनाकर दस प्रतिशत मत ले जाएं, तो कितनी विकटें उड़ेंगी कोई नहीं जानता। यह संकट भाजपा के लिए इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि हिमाचल का अधिकतम मतदाता मध्यमवर्गीय, बुद्धिजीवी या नौकरी पेशा है। दूसरे वर्तमान सरकार के कई मंत्री व विधायक इतने कमजोर हैं कि उनके खिलाफ एक जोरदार हल्ला, सारे समीकरण उजाड़ सकता है। भाजपा कितने नए चेहरों पर दांव लगाती है या जनता किसे नायक बनाना चाहती है, यह मनोवैज्ञानिक कशमकश आगे चलकर और स्पष्ट होगी।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

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