सम्पादकीय

टीवी डिबेट में भड़काऊ बयान...राजनीति और टीआरपी के खेल में हार रहा हमारा समाज और राष्ट्र

Rani Sahu
10 Jun 2022 6:07 PM GMT
टीवी डिबेट में भड़काऊ बयान...राजनीति और टीआरपी के खेल में हार रहा हमारा समाज और राष्ट्र
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शायद यह पहली बार है जब देश में किसी टीवी चैनल के कार्यक्रम को लेकर उठा विवाद अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया हो

By लोकमत समाचार सम्पादकीय

शायद यह पहली बार है जब देश में किसी टीवी चैनल के कार्यक्रम को लेकर उठा विवाद अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया हो, और यह भी शायद पहली बार है जब किसी राजनीतिक दल ने अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता को पार्टी से इसलिए निलंबित या निष्कासित किया हो कि उसकी करनी से ऐसा कोई विवाद उठ खड़ा हुआ है. हालांकि भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने बिना शर्त खेद प्रकट किया है पर इसमें संशय नहीं है कि इस विवाद ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर देश के लिए एक मुश्किल स्थिति पैदा कर दी है.
हमारा संविधान हमें अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण करने, और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने की भी, आजादी देता है, लेकिन उस लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन करने का अधिकार किसी को नहीं है जो देश में धार्मिक सौहार्द्र की स्थिति को बनाए रखने के लिए जरूरी है. लेकिन इस रेखा का उल्लंघन न करने का दायित्व जिन पर है, वे अक्सर अपनी सीमा लांघ लेते हैं. यह चिंता की बात है, और खतरे की भी.
आजादी के बाद जब हमने अपना संविधान बनाया तो उसमें सर्वसम्मति से यह कहना जरूरी समझा था कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के अनुसार आचरण करने का अधिकार होगा, और यह भी कि सरकार के स्तर पर धर्म के संदर्भ में किसी के साथ भी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा. भारत के हर नागरिक के अधिकार समान हैं, और कर्तव्य भी.
पंथ-निरपेक्षता के इसी सिद्धांत के अनुसार हमने एक बहुधर्मी देश का सपना देखा और इस बात के प्रति सावधान रहे कि हमारा यह सपना खंडित न हो. लेकिन इस व्यवस्था और सावधानी के बावजूद ऐसे तत्वों को सिर उठाने के अवसर मिलते रहे हैं जो धार्मिक सौहार्द्र बिगाड़ने का कारण बनते हैं. जब अवसर मिलते नहीं तो ये तत्व अवसर बना लेते हैं.
ऐसा ही एक असर भाजपा के प्रवक्ता के टीवी बहस में अनुत्तरदायी आचरण से बन गया. यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह तथ्य है कि कई बार हमारे टीवी कार्यक्रम में भाग लेने वाले, और एंकर भी जानबूझकर ऐसे विवादों को हवा देते हैं, जो सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने का काम करते हैं. अक्सर हम देखते हैं कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ता और समर्थक अपने नाटकीय और दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार से टीवी के दर्शकों को लुभाने की कोशिश करते हैं. लेकिन ऐसा व्यवहार सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण नहीं होता, अक्सर यह आपराधिक कृत्य होता है और अक्सर ऐसा करने वाले सजा से भी बच जाते हैं.
वैसे, सजा सिर्फ ऐसा कुछ बोलने वालों को ही क्यों मिले? सजा की भागीदार तो उस एंकर की चुप्पी भी होती है, जो ऐसे आपराधिक व्यवहार को देखकर अनदेखा कर देता है. एंकर का कर्तव्य बनता है कि वह हस्तक्षेप करे, गलत करने या बोलने वाले को ऐसा करने से रोके, पर सच्चाई यह है कि जहां टीवी बहस में भाग लेने वाले भड़काऊ बयानों से अपना राजनीतिक हित साध रहे होते हैं, वहीं एंकरों की निगाह अपनी टीआरपी पर होती है. राजनीति और व्यवसाय के इस खेल में हार राष्ट्रीय और सामाजिक हितों की होती है.
देश में जब-तब सांप्रदायिकता की आग फैलाने वालों को अपने स्वार्थ दिखते हैं, देश का हित नहीं. इन स्वार्थों के खिलाफ भी एक लड़ाई लड़नी होगी. सच तो यह है कि यह लड़ाई लगातार जारी रहनी चाहिए. सांप्रदायिकता फैलाने वाले व्यक्ति और विचार दोनों के दुश्मन हैं. सांप्रदायिकता मनुष्यता का नकार है. सवाल किसी एक पार्टी प्रवक्ता को निलंबित या निष्कासित करने का नहीं है, सवाल उस विचार को मन-मस्तिष्क से निकालने का है जो हमें बांटता है. धर्म के नाम पर बांटने वाली राजनीति को हर कीमत पर नकारना होगा.


Rani Sahu

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