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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। नए कृषि कानूनों के विरोध में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि मौजूदा कृषि सुधार अमेरिका एवं यूरोप का एक असफल मॉडल है और सरकार कृषि क्षेत्र को पूंजीपतियों के हाथों सौंपने के लिए ऐसा कर रही है। कुछ किसान संगठन इन कृषि सुधारों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एवं मंडियों को समाप्त करने की साजिश करार दे रहे हैं, जिसके कारण किसानों का एक वर्ग विशेषकर पंजाब और हरियाणा के किसान आशंकित एवं भ्रमित हैं। सवाल है कि इन आरोपों में कितनी सच्चाई है।
भारत और पश्चिम का परिवेश एवं परिस्थितियां पूर्णत: भिन्न
प्रथमदृष्टया देखें तो भारत और पश्चिम का परिवेश एवं परिस्थितियां पूर्णत: भिन्न हैं। इसलिए तुलना से पहले कई पहलुओं पर गंभीरता से विचार आवश्यक है। कुछ समय पहले मुर्गीपालक किसानों के पिंजरों पर प्रतिबंध का मामला उठा था। उस समय यूरोप की तर्ज पर मुर्गियों के पिंजरों पर प्रतिबंध लगाकर उन्होंने खुले में रखने का दबाव बनाया था। एक बार तो पशु हिंसा के नाम पर सरकार एवं न्यायालय का एक बड़ा वर्ग उनके इस तर्क से सहमत भी दिखाई दे रहा था, परंतु जब वैज्ञानिक अध्ययन किया गया तो पता चला कि यूरोप में वर्ष भर तापमान 20 डिग्री से नीचे रहता है और वहां मुर्गियों को खुले में रखने में कोई समस्या नहीं है। इसके ठीक विपरीत भारत में भीषण गर्मी पड़ती है और तापमान 40 से 50 डिग्री तक चला जाता है। उस तापमान में मुर्गियों का खुले में रखना संभव ही नहीं है।
खपत बढ़ाने के लिए आनंद मिलने के बजाय बीमारियां लगती जा रही हैं।
इसलिए भारत की परिस्थितियों में मुर्गियों को पिंजरों में रखना जरूरी है। बाद में पता चला कि भारत की कुछ सामाजिक संस्थाओं ने यूरोप के मुर्गीपालकों से चंदा लेकर भारत के मुर्गीपालक किसानों के हितों के साथ समझौता करने का काम किया था। यूरोपीय व्यापारिक संघ एवं सरकारें भारत में मुर्गीपालन में लगने वाली कम लागत के चलते भारत के बढ़ते निर्यात से दबाव में थीं, लेकिन पोल्ट्री फेडरेशन ऑफ इंडिया एवं सरकार की सक्रियता से समस्या का समाधान हो गया, अन्यथा भारत के मुर्गीपालक किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता था।
भारत में कृषि सुधारों को रोकने की वकालत
आज एक बार फिर उसी तर्ज पर अमेरिका एवं यूरोप के मॉडल का हवाला देकर कृषि सुधारों को रोकने की वकालत हो रही है। अमेरिका एवं यूरोप में एक-एक फार्म कई सौ एकड़ जमीन में फैले हैं, जबकि भारत में अधिकतर किसानों के पास एक अथवा दो एकड़ से भी कम जमीन उपलब्ध है। ऐसे में दोनों की परिस्थितियों की तुलना संभव ही नहीं और न ही वहां की नीतियों को यहां की परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है। भारत में छोटे किसानों को लागत कम करने के लिए सामूहिक खेती करने की आवश्यकता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर पहले से मौजूद सहकारी संस्थाओं एवं आठ हजार से ज्यादा किसान उत्पादक संघों के अलावा 10 हजार नए किसान उत्पादक संघ बनाने का काम कर रही है, जिसके लिए नेफेड, एनसीडीसी एवं एसएफएसी को अधिकृत किया गया है।
बाइडन के नेतृत्व में अमेरिका के साथ भारत की मैत्री और प्रगाढ़ होगी।
हरित क्रांति और श्वेत क्रांति में सरकारों से ज्यादा कृषि सहकारी संस्थाओं का योगदान था
आज अधिकांश लोगों को यह जानकारी नहीं होगी कि हरित क्रांति और श्वेत क्रांति में सरकारों से ज्यादा कृषि सहकारी संस्थाओं का योगदान था। नेफेड, इफको, कृभको, अमूल एवं राज्य सहकारी बैंकों ने इसमें महती भूमिका निभाई थी। भारत सरकार ने पिछले छह वर्षों में इन संस्थाओं को और मजबूत एवं पेशेवर बनाने की दिशा में काम किया है। इसी का परिणाम है कि इन संस्थाओं को निजी क्षेत्र चाहकर भी चुनौती नहीं दे पाया है।
शासन की जिम्मेदारी होती है हर नागरिक की सुरक्षा और न्याय दिलाना।
नए कृषि सुधारों के बाद कृषि में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ेगी और निवेश भी आएगा
नए कृषि सुधारों के बाद कृषि में निजी क्षेत्र की भूमिका अवश्य बढ़ेगी और उसका निवेश भी आएगा, लेकिन पहले से काम कर रहीं किसानों की संस्थाओं एवं सरकार की समानांतर निवेश योजना से संतुलन बना रहेगा। इसके लिए भारत सरकार ने कृषि के आधारभूत ढांचा विकास के लिए एक लाख करोड़ रुपये का कोष बनाया है। ग्रामीण विकास के लिए भी भारी बजट का प्रावधान किया है। नेफेड, इफको, कृभको, एफसीआइ, अमूल, राज्य एवं जिला सहकारी बैंक, एपीएमसी और पैक्स जैसी तमाम संस्थाओं का बजट एवं कारोबार पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है। इन संस्थाओं पर किसानों का मालिकाना हक है। इसलिए किसानों को आशंकित होने की आवश्यकता नहीं है। जब निजी क्षेत्र की कंपनियां आएंगी तो इन संस्थाओं को भी प्रतिस्पर्धा के दबाव में अधिक पेशेवर एवं जवाबदेह बनना पड़ेगा। इससे ये अपने सदस्यों अर्थात किसानों को ज्यादा सुविधाएं, सेवाएं, दाम एवं लाभांश देने के लिए बाध्य होंगी, जो किसानों के हित में है। अमेरिका एवं यूरोप में किसानों के पास कोई विकल्प नहीं था। अत: वे पूरी तरह पूंजीपतियों पर आश्रित हो गए, परंतु भारत में किसानों की अपनी लाखों संस्थाएं होने की वजह से यह संभव ही नहीं है।
एमएसपी अथवा मूल्य स्थिरीकरण कोष समाप्त नहीं की जा सकती
जहां तक एमएसपी अथवा मूल्य स्थिरीकरण कोष जैसी प्रणालियों का सवाल है तो वे कभी समाप्त नहीं की जा सकती हैं, क्योंकि सरकार को अपने सुरक्षित भंडारों के लिए अनाज खरीदने ही होते हैं। ये प्रणालियां कानून के तहत ही पिछले 55 वर्षों से काम कर रही हैं। आज जो लोग मंडियों के समाप्त होने की बात कर रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में कई नई मंडियां बनाई हैं। इससे उनकी संख्या बढ़कर 7700 तक हो गई है। इनमें से कुछ का उन्नयन कर ई-नाम बाजार से जोड़ा गया है।
मंडियों को आधुनिक बनाने का काम चल रहा है
अन्य मंडियों को आधुनिक बनाने का काम चल रहा है। लगभग 22 हजार छोटे हाटों का उन्नयन कर उन्हेंं भी मंडी (एपीएमसी) बनाया जा रहा है। देश की लगभग 42,000 मंडियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कृषि सुधारों के माध्यम से निजी क्षेत्र को इससे जोड़ना आवश्यक है। इन्हें ऑनलाइन बाजारों से भी जोड़ना होगा, जिससे पूरे देश को एक बाजार बनाया जा सके, बाजार को किसानों के दरवाजे तक पहुंचाया जा सके और उनके पास अपनी फसल को बेचने के सैकड़ों विकल्प उपलब्ध हो सकें। इससे उनकी सौदा और मोलभाव करने की ताकत बढ़ेगी, परंतु यह सब इन कृषि सुधारों के लागू होने बाद ही संभव है।