सम्पादकीय

जन सरोकारी पहल से भ्रष्टाचार पर अंकुश, अपनी जिम्मेदारी समझ आवाज उठाए हर नागरिक

Gulabi
22 Oct 2020 4:14 AM GMT
जन सरोकारी पहल से भ्रष्टाचार पर अंकुश, अपनी जिम्मेदारी समझ आवाज उठाए हर नागरिक
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कॉरपोरेट क्रॉनिज्म आज लगभग समूचे देश में व्याप्त है। इस कारण देश में भ्रष्टाचार शिखर पर है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कॉरपोरेट क्रॉनिज्म आज लगभग समूचे देश में व्याप्त है। इस कारण देश में भ्रष्टाचार शिखर पर है। फ्रेंच अर्थशास्त्री फ्रेडरिक बास्टियाट ने सही कहा है कि जब किसी समाज में व्यक्तियों के एक समूह के लिए लूट जीवन जीने का एक तरीका बन जाता है, तो समय के साथ वे खुद के लिए एक ऐसी कानूनी प्रणाली बनाते हैं, जो इसे अधिकृत करता है और जिसे उस समूह को गौरवान्वित करने वाली एक नैतिक संहिता भी प्रदान करता है। भारत के संदर्भ में यह सही है कि देशवासियों को वह सब नहीं मिलता है, जिनके लिए वे खर्च करते हैं, बल्कि उन्हें मिलने वाली चीजों के लिए उनको भुगतान करने पर मजबूर किया जाता है।

पहले नेहरूवादी और फिर समाजवादी मॉडल : पूंजीवाद के साथ भारत का ठहराव पूंजीपति के डर के अविश्वास से भरा था। नीति निर्माताओं का संदर्भ बिंदु महाराजा, तथाकथित लाला और जमींदार थे। उन्होंने क्रॉनिज्म के साथ प्रतिस्पर्धी पूंजीवाद की बराबरी की और सहज रूप से श्रम शोषण और मुनाफाखोरी को स्वीकार किया। देश ने पहले नेहरूवादी और फिर समाजवादी मॉडल से इस डर का राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों और लाइसेंस राज के साथ सामना किया। धीरे धीरे यह प्रयास में गर्त में चला गया, जो बताता है कि शासन की कुंजी स्वामित्व नहीं, बल्कि ट्रस्टीशिप है।

प्राकृतिक संसाधनों को आवंटित करने या बेचने के दृष्टिकोण, डिजाइन और कार्यप्रणाली क्रॉनिज्म के प्रति मंशा को परिभाषित करता है। ब्रिटेन और नॉर्वे दोनों ने प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण किया, लेकिन बहुत अलग परिणामों के साथ। ब्रिटेन की शासक रहीं मार्गरेट थैचर ने खुद को मालिक (ट्रस्टी नहीं) के रूप में देखा और इसे उच्चतम बोली लगाने वाले के हवाले कर दिया। जबकि दूसरी ओर नॉर्वे के तत्कालीन शासक ने स्वयं को सार्वजनिक संपत्ति के ट्रस्टी की भूमिका में रखा, लिहाजा नॉर्वे सामाजिक और आíथक दोनों रूप से विकसित हो सका।

डॉ. मनमोहन सिंह क्रोनिज्म के सामने झुकते चले गए : पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा किया गया बैंकों का राष्ट्रीयकरण एकाधिकार को रोकने वाला एक और उदाहरण है। अगर वह प्रभावी संस्थानों और स्वतंत्र बोर्डो के माध्यम से शासन पर ध्यान केंद्रित करतीं, तो इतिहास उन्हें बेहतर नजरिये से देखता। बाद के प्रधानमंत्रियों और अन्य नेताओं ने खुद को मालिकाना हक और क्रोनियों को चांदी वितरित करने का अधिकार दे दिया, जिससे बीमार उद्योग और परिपुष्ट उद्योगपति पैदा हुए।

इसी प्रकार, पहली बार केंद्र में गठित गैर कांग्रेसी सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बंद कर किया। पिछली सदी के आठवें दशक के मध्य तक लगभग हर आर्थिक गतिविधि को सरकार या उन लोगों द्वारा नियंत्रित किया जाता था, जिन्हें इसका अधिकार दिया गया था। डॉ. मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री और प्रशासक भी क्रोनिज्म के सामने झुकते चले गए। कोयला और अन्य संसाधनों की नीलामी उनके पतन का कारण बना। वर्ष 1991 में आíथक उदारीकरण के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था ने नाटकीय मोड़ लिया।

क्या है क्रोनिज्म : यह एक प्रकार से कानूनी लूट है, जो अनंत तरीकों से अपने काम के लिए प्रतिबद्ध है। यह राज्य के संरक्षण में उत्पन्न होती और मजबूत बनती है। इसमें जहां एक ओर लोगों को सब्सिडी से बहलाया जाता है, तो वहीं दूसरी ओर यह अधिक से अधिक परोक्ष टैक्स के लिए पैरवी करता है। यह दबंग प्रतिस्पर्धा का बढ़ावा देता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि हमें धमकी दी जा रही है कि अब कोई एकल बोलीदाता रेल चलाएगा। अगर यह अवधारणा हास्यास्पद और उपभोक्ता विरोधी नहीं है, तो चयन मानदंड (अधिकतम राजस्व का अर्जन) समान रूप से निराशाजनक है।

यह अनुमान लगाने में बहुत अधिक सोचना नहीं पड़ेगा कि गरीब रथ जैसी ट्रेनों को सशक्त बनाने के लिए केवल लाभप्रदता को प्राथमिक पैमाने के रूप में विकसित किया जा रहा है। इसी तरह, हवाईअड्डे और संचार दो बड़े घरानों द्वारा संचालित किए जाते हैं। इस तरह से हम तेजी से शक्ति संकेंद्रण का अनुभव और न भरने वाली खाई का निर्माण कर रहे हैं। इस संबंध में विचारणीय यह है कि लगभग एक दशक पहले सेबी ने नियम बनाया था कि शीर्ष 100 कंपनियों को व्यावसायिक जिम्मेदारी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी, जो अब शीर्ष 1,000 कंपनियों पर लागू होती है। इस शासनादेश के बाद एस्सार, जेट एयरवेज और यस बैंक जैसी कंपनियों की विफलता हमारे सामने है।

वाणिज्य को पटरी पर लाने की चुनौती : एकाधिकार और व्यावसायिक गतिविधियां अवैध नहीं हैं, लेकिन निश्चित रूप से मौजूदा व्यवहार अनुचित है और आचरण अनैतिक हैं। करीब चार दशकों के अध्ययन पर आधारित एक रिपोर्ट परेशान करने वाली प्रवृत्ति को उजागर करता है। आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि उदारीकरण ने राज्य आधिपत्य की मात्र को कम करने के बजाय बढ़ाने का काम किया है और कई बार सुगम भी बनाया है।

उदारीकरण के पहले शीर्ष 20 प्रतिशत कॉरपोरेट ने कॉरपोरेट लाभ के छठे हिस्से से अधिक का योगदान नहीं दिया था। आज यह 75 प्रतिशत से अधिक है और लगातार बढ़ रहा है। कुछ कॉरपोरेट्स (परिवार) अधिक की कीमत पर बड़े हो रहे हैं। यह पैमाना अंतरंग पूंजीवाद का भारवाहक है। अंतरंग पूंजीवाद छोटे स्तर पर शुरू हुआ था और अब पूरी तरह से स्थापित हो चुका है। यह अध्ययन बताता है कि कैसे अंतरंग-विशिष्ट क्षेत्र और गैर-अंतरंग क्षेत्र धन सृजन में योगदान देते हंै, जो यह दर्शाता है कि अंतरंग उद्योगों का शुद्ध मूल्य 24 गुना बढ़ गया है।

भयानक रूप लेता क्रॉनिज्म : भारत दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच आठवें स्थान पर है। अन्य अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, भारत के पास एक विकसित और संपन्न बाजार का इतिहास है, जो एक उद्यमी वर्ग और अच्छी तरह से विकसित वाणिज्यिक कानून द्वारा समíथत है। नीति निर्माताओं और समाज को इस पर अवश्य चिंतित होना चाहिए। हमारे देश में अधिकांश व्यक्ति भ्रष्टाचार का सामना करते हैं, लेकिन अफसोस की बात है कि वे न तो इसे खराब समझते हैं और न ही अर्थव्यवस्था तथा समाज पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का आकलन करते हैं और इसलिए वे न तो इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं और न ही भ्रष्टाचारियों को हतोत्साहित करते हैं।

समग्रता में देखा जाए तो क्रॉनिज्म का समाज पर प्रभाव अस्पष्ट है, फिर भी अत्यंत गंभीर है। क्रॉनिज्म उत्पादकता तथा मानव क्षमता को स्थायी नुकसान पहुंचाता है, अवसरों को सीमित करता है और गतिशीलता को कम करता है। इससे कानून और सरकार के शासन में निष्ठा कम होती है, जो लोकतंत्र के लिए सही नहीं है। व्यावसायिक समुदाय और नीति निर्माताओं का पोषण करने वाली अर्थव्यवस्था को भी पूंजी और प्रतिभा के पलायन के जोखिम के प्रति जागरूक होना चाहिए, जिससे अर्थव्यवस्था को नुकसान हो है। क्रॉनिज्म की आíथक कीमत को मापना आसान है। यह असमान विकास और प्रतिकूल व्यापार अनुपात में दिखाई पड़ता है।

नीति निर्धारण को मिले मजबूती : यह समझना होगा कि 21वीं सदी के भारत को 20वीं सदी के संस्थानों के साथ संचालित नहीं किया जा सकता है। हालांकि इसकी निगरानी के लिए कई संस्थान हैं। भारतीय रिजर्व बैंक जैसी संस्थाएं चाहें तो इसे ठीक कर सकती हैं। इसी तरह, चुनाव आयोग भी अन्य संस्थानों को सबक सिखा सकता है। इस संबंध में नागरिकों की भी जिम्मेदारियां हैं। नीति निर्धारण की प्रक्रिया को मजबूत बनाते हुए नियंत्रण और संतुलन के साथ जवाबदेही तय करना होगा और क्रॉनिज्म का समय रहते पता लगाने के लिए सटीक पैमाना विकसित करना होगा, ताकि इनका पर्दाफाश करते हुए इन्हें खत्म किया जा सके।

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