सम्पादकीय

असंगठित क्षेत्र की मुश्किलें

Subhi
14 May 2022 4:58 AM GMT
असंगठित क्षेत्र की मुश्किलें
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शहरों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों का बीस फीसद हिस्सा दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर है। इसी कारण इन श्रमिकों का आर्थिक जीवन स्तर दयनीय हालत में रहता है।

परमजीत सिंह वोहरा: शहरों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों का बीस फीसद हिस्सा दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर है। इसी कारण इन श्रमिकों का आर्थिक जीवन स्तर दयनीय हालत में रहता है। वे सामाजिक सुरक्षा की सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं। इनके न्यूनतम वेतन की भी गारंटी नहीं है। विकासशील देश रोजगार सृजन के लिए असंगठित क्षेत्र पर कहीं ज्यादा निर्भर रहते हैं।

इसी कारण विकसित देशों से वे हमेशा आर्थिक स्तर पर पिछड़े रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति भारत की भी है। आज भारत की नब्बे फीसद श्रम योग्य आबादी रोजगार के लिए असंगठित क्षेत्र में लगी है। इनकी संख्या बयालीस करोड़ के आसपास है। वहीं दूसरी तरफ इस क्षेत्र के लोगों की आमद बहुत कम होती है। आंकड़ों के अनुसार कुल राष्ट्रीय आय में इस क्षेत्र का योगदान मात्र तीस फीसद ही है।

इस कारण भारत की कुल राष्ट्रीय आय कम है और विकसित राष्ट्रों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति आय भी बहुत कम है। नतीजतन हमारे समाज का एक बहुत बड़ा तबका रोजमर्रा के जीवन में आर्थिक सुविधाओं के लिए संघर्ष करता दिखता है।

इन क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों की मुख्य समस्याओं में कम आमदनी, स्थायी रोजगार की अनिश्चितता और श्रम कानूनों के प्रावधानों का फायदा न मिल पाना तो है ही, इससे भी बड़ी समस्या आर्थिक सुविधाओं से वंचित रहना है। इसका जीवंत उदाहरण हमने कोरोना महामारी के समय प्रतिबंधों के दौरान देखा था जब श्रमिकों का बहुत बड़ा तबका रोजगार विहीन होकर सड़कों पर पैदल चलने को मजबूर था।

यह भी हकीकत है कि आज दो साल बाद भी कामगारों का यह तबका आज भी आर्थिक रूप से संघर्षरत है। रोजगार तो उसे वापस मिलने लगा है, पर आर्थिक खुशी अभी नहीं मिली है। इसी वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था भी आर्थिक विकास के लिए बहुत मजबूत नजर नहीं आ रही है। भारत का असंगठित क्षेत्र मुख्यत: ग्रामीण आबादी से मिल कर बना है। लगभग सत्तर फीसद ग्रामीण श्रमिक असंगठित क्षेत्रों में लगे हैं। इसमें अधिकांशत: वे हैं जो आर्थिक गुजर-बसर के लिए गांवों में कृषि पर निर्भर हैं या गांवों में अपने परंपरागत कार्य करते हैं।

इसके अलावा वे छोटे भूमिहीन किसान भी इसी क्षेत्र से जुड़े हैं जो फसल की बुआई और कटाई के समय गांवों की ओर चले जाते हैं। शहरों में इस क्षेत्र के पचास फीसद लोग अपने खुद के छोटे-मोटे काम-धंधों में लगे हैं जिसमें किराने की दुकान, सब्जी, दूध विक्रेता, सड़क किनारे रेहड़ी-पटरी लगाने वाले, घरों में काम करने वाले प्लंबर, बिजली मिस्त्री आदि शामिल हैं।

इसके अलावा विनिर्माण उद्योगों, परिवहन, भंडारण, होटल, रेस्टोरेंट, विभिन्न संचार-दूरसंचार माध्यमों, काल सेंटरो, वित्तीय सेवा क्षेत्र आदि में बड़ी संख्या में ऐसे श्रमिक लगे हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि शहरों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों का बीस फीसद हिस्सा दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर है। इसी कारण इन श्रमिकों का आर्थिक जीवन स्तर दयनीय हालत में रहता है। वे सामाजिक सुरक्षा की सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं।

इनके न्यूनतम वेतन की भी गारंटी नहीं है। पेंशन, चिकित्सा सुविधा, भविष्य निधि, बीमा, ग्रेच्युटी जैसी आवश्यक आर्थिक सुरक्षाएं जो सभी सरकारी संस्थानों में कर्मचारियों का आर्थिक अधिकार है, उससे ये सदैव वंचित ही नहीं अपितु अनभिज्ञ भी रहते हैं। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि आजीविका के ऐसे सभी स्रोत सामान्यतया किसी श्रमिक व औद्योगिक कानून से संचालित नहीं होते। इसलिए इन्हें असंगठित क्षेत्र कहा जाता है।

यह विचारणीय विषय है कि असंगठित क्षेत्र अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में क्यों नहीं है, जबकि भारत के ग्रामीण व पिछड़े वर्ग के आर्थिक विकास का मुख्य सहारा यही क्षेत्र है। उदाहरण के तौर पर आज भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्माण व उत्पादन के क्षेत्र में असंगठित क्षेत्र से लगभग चालीस फीसद का अंशदान प्राप्त होता है।

अगर इसे भी मुख्य धारा में शामिल कर लिया जाए तो इससे आर्थिक प्रगति को नई तेजी मिल सकती है। इससे आत्मनिर्भरता भी बहुत हद तक संभव है और गरीबी का उन्मूलन भी। इस पक्ष पर विश्लेषण यह बताता है कि असंगठित क्षेत्र के मुख्य धारा में नहीं होने के पीछे कुछ समस्याएं हैं। इनमें सबसे बड़ी तो यही है कि असंगठित क्षेत्र में कार्यरत व्यापार व उद्योग धंधों को वित्तीय सुविधाएं आसानी से नहीं मिल पाती है। इस कारण इन्हें कर्ज की लागत अधिक पड़ती है।

इस वजह से इनका कारोबार विस्तार भी नहीं हो पाता। यह एक हकीकत है कि वित्तीय सुविधाओं की जकड़न के कारण असंगठित क्षेत्र के उद्योग-धंधों की लाभदायकता भी कम ही रहती है। इसका नतीजा यह होता है कि इससे जुड़े श्रमिकों को भी आर्थिक सुविधाएं नहीं मिल पातीं।

भारत जैसे सभी विकासशील देशों में छोटे उद्योगों का बड़ा बन पाना आसान नहीं है। जबकि बड़े उद्योगों के लिए अपने दायरे को और बढ़ाना तुलनात्मक रूप से आसान होता है। इस प्रचलित अवधारणा के पीछे मुख्य भूमिका छोटे व्यापारियों के लिए पूंजी की अतिरिक्त मात्रा का आसानी से उपलब्ध न होना है। इसी प्रकार छोटे उद्योग और कारोबारों को मुनाफा बिक्री के अनुपात में अपेक्षाकृत कम होता है।

वित्तीय पक्ष के अलावा अन्य समस्याओं की बात करें तो असंगठित क्षेत्रों में नवाचारों की हमेशा कमी रही है। ज्यादातर उद्योग आज भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं। आधुनिक प्रबंधन व्यवस्था के अभाव में ये प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं और गुणवत्ता की समस्या भी रहती है। अन्य पक्ष पर भी गौर करें तो असंगठित क्षेत्र में प्रौद्योगिकी और विपणन के आधुनिक तौर-तरीकों की बनी हुई है।

असंगठित क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों की क्रय क्षमता कम होती है। इसका भी असर देश की आर्थिक विकास की दर पर पड़ता है। भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जरूरी है कि असंगठित क्षेत्र में लगे लोगों के जीवन स्तर को समृद्ध करने पर गौर किया जाए। इसके लिए सबसे पहले उनकी आमदनी बढ़ानी होगी और उन्हें सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का कवच देना होगा।

असंगठित क्षेत्र में तीन बड़ी समस्याएं हैं। पहली न्यूनतम मजदूरी को लेकर है। न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करने के लिए इससे संबंधित कानून में लचीलापन लाने की जरूरत है। राज्यों की आर्थिक व्यवस्था के हिसाब से न्यूनतम मजदूरी की दरें निश्चित की जानी चाहिए और समय-समय पर इनमें बदलाव भी होना चाहिए। एक पक्ष यह भी देखने को मिलता है कि असंगठित क्षेत्र के शहरी श्रमिक वर्ग को ग्रामीण क्षेत्र से अधिक आर्थिक सहायता की जरूरत होती है।

कारण यह है कि संकट के वक्त ग्रामीण श्रमिक के पास उसका परिवार, उसके रिश्तेदार आर्थिक व भावनात्मक सहायता के लिए संकट के समय उपलब्ध होते हैं, जबकि शहरी क्षेत्र में ऐसा नहीं है। शहरी इलाकों में मामूली सुविधाओं के लिए भी व्यक्ति संघर्ष करता है जिनमें घर से लेकर चिकित्सा सुविधा तक शामिल है।

यह बात पूर्णतया स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए असंगठित क्षेत्र का सशक्त होना जरूरी है। देखा गया है कि संगठित क्षेत्रों के उद्योग धंधे व कंपनियां कई दफा आर्थिक स्तर पर चोट खा जाते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था को धक्का लगता है। लेकिन ऐसे विपरीत समय में भी अर्थव्यवस्था को सहारा असंगठित क्षेत्र ने ही दिया है। वर्ष 2008 की आर्थिक मंदी इस बात का उदाहरण है कि असंगठित क्षेत्र के आर्थिक संचालन ने विकास दर को संभाल लिया था, वरना वैश्विक मंदी का भारत पर भारी असर पड़ता।

दूसरी ओर, भारतीय पूंजी बाजार और शेयर बाजार की उठापटक का भी संगठित क्षेत्र के उद्योग धंधों पर असर पड़ता है, चाहे कारण वैश्विक ही क्यों न हों। इन सब विपरीत दिशाओं में भी असंगठित क्षेत्र के उद्योग धंधे व व्यापार अपनी गति पकड़े रखते हैं। इसलिए असंगठित क्षेत्र और इससे जुड़ेश्रमिकों का कल्याण कहीं ज्यादा जरूरी है।


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