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इस पर राष्ट्रव्यापी बहस होनी ही चाहिए। एक खास वर्ग को दुधारू गाय की तरह दुहना उचित नहीं है।
अगर यह कहा जाए कि 130 करोड़ की आबादी वाला यह देश सिर्फ साढ़े चार करोड़ लोगों के टैक्स के पैसों से चलता है, तो हैरान न हों। इसमें भी डेढ़ करोड़ करदाता ऐसे हैं, जिनका योगदान नाम भर का है। यानी व्यावहारिक तौर पर देश की कुल आबादी के तीन प्रतिशत से भी कम लोग आयकर देते हैं। पिछले पांच-छह वर्षों में देश के कुल राजस्व का 55 प्रतिशत प्रत्यक्ष करों से आता रहा है और शेष 45 प्रतिशत अप्रत्यक्ष करों से आया।
सरकार के प्रयासों से आयकर रिटर्न भरने वालों की तादाद बढ़कर 6.6 करोड़ तो हो गई, लेकिन आयकर वसूली में कोई खास इजाफा नहीं हुआ। एक कानून है, इसलिए लोग आयकर रिटर्न भरते रहे। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में आयकर वसूली अभी 15 लाख करोड़ रुपये भी नहीं है। फरवरी में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करने के दौरान बताया कि पिछले वित्त वर्ष में आयकर के जरिये कुल 14.20 लाख करोड़ रुपये प्राप्त हुए हैं, जिसमें 7.20 लाख करोड़ रुपये कॉरपोरेट टैक्स से और शेष सात लाख करोड़ रुपये आम करदाताओं से प्राप्त हुए।
सच तो यह है कि यह राशि बहुत कम है और सरकार के लिए चिंता का विषय है। भारत में अभी कुल कर और जीडीपी का अनुपात 11 प्रतिशत ही है। यानी हम बहुत ही कम कर देते हैं। इसका नतीजा है कि सरकार लगातार कर्ज लेती जा रही है और जून, 2020 में यह बढ़कर एक लाख करोड़ रुपये हो गया। सरकार ने आयकर और जीएसटी का दायरा बढ़ाने का प्रयास तो किया, लेकिन उसमें उसे ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई है। आयकर की वसूली का दायरा भी छोटा है।
इस सारी वसूली का बड़ा हिस्सा वेतनभोगी और मध्य वर्ग के बूते हो रहा है। यह वह वर्ग है, जो कर देता है और जो बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी कर देने के लिए बाध्य है। मध्य और उच्च मध्य वर्ग सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है और सबसे ज्यादा कर भी देता है। उससे यह उम्मीद भी की जाती है कि वह बचत योजनाओं में पैसे भी लगाएगा, जिसका अंततः इस्तेमाल सरकार करेगी। सरकारों ने निर्धन वर्ग तथा अन्य के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं बनाई हैं, लेकिन मध्य वर्ग के लिए कुछ नहीं है।
न तो उसके लिए बुढ़ापे में आय का कोई प्रबंध है और न मेडिकल सुरक्षा, जो सरकारी कर्मचारियों को मिली हुई है। मेडिकल बीमा इतना महंगा है कि बहुत से वरिष्ठ नागरिक कराते भी नहीं हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ सरकारों ने आने वाले चुनाव को देखते हुए फिर से पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल कर दी है, जिसका बोझ खासकर मध्य वर्ग ही उठाएगा। सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि कौन सा नया वर्ग उभरा है, जो अच्छी कमाई के बावजूद आयकर के दायरे से बाहर है।
समस्या यह है कि वोट की राजनीति के कारण सरकारें नए वर्गों के बारे में सोच नहीं पा रही हैं या हिम्मत नहीं जुटा रही हैं। पिछले कई दशकों से यह बात उठती रही है कि धनी किसानों को भी आयकर के दायरे में लाया जाए। इंदिरा गांधी की सरकार ने इस पर काफी चिंतन भी किया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। हाल के किसान आंदोलन में हमने हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को नजदीक से देखा। महंगे कपड़े, स्पोर्ट्स शूज और बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े ट्रैक्टर सभी कुछ थे उनके पास।
फिर भी उनमें से एक भी किसान आयकर नहीं देता। कई ऐसे किसान मिल जाएंगे, जिनके पास सैकड़ों एकड़ जमीन है और वे कर देने के बजाय सरकार से ही वसूली कर रहे हैं, चाहे वह एमएसपी में बढ़ोतरी हो या उर्वरकों की कीमतों में सब्सिडी या फिर कम दाम पर या मुफ्त में बिजली। छोटे व्यवसायी इस समय कोरोना महामारी के कारण मार खा बैठे हैं। लेकिन इसके पहले उन्होंने काफी कमाया।
इस तरह के और भी कई वर्ग हैं, जिन पर सरकार को आगे चलकर ध्यान देना होगा। सरकार को आगे के लिए एक रोडमैप बनाना होगा, ताकि नए वर्ग कर दायरे में आएं। यह बहुत जरूरी है, क्योंकि मध्य वर्ग के कर देने की सीमा है और वह दे भी रहा है। आयकर की वसूली कैसे बढ़ाई जाए और इसमें जो विषमताएं हैं उन्हें कैसे दूर किया जाए, इस पर राष्ट्रव्यापी बहस होनी ही चाहिए। एक खास वर्ग को दुधारू गाय की तरह दुहना उचित नहीं है।
सोर्स: अमर उजाला
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