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राहुल गांधी त्रिवेंद्रम में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे. राहुल गांधी में परिपक्वता की यही कमी उनके सार्थक प्रयास को भी कमतर बना देती है.
वायनाड (Wayanad) से सांसद राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने केरल (Kerala) की अपनी यात्रा में एक ऐसा जहरीला बयान दे दिया जो इस चुनावी मौसम में उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है. दरअसल अगले महीने देश के 5 राज्यों में चुनाव प्रस्तावित हैं. उन्होंने कहा, 'पहले 15 साल तक मैं उत्तर भारत (Uttar Pradesh) में एक सांसद था और मुझे एक अलग तरह की राजनीति की आदत हो गई थी. मेरे लिए केरल आना बहुत नया अनुभव था क्योंकि मुझे अचानक लगा कि यहां के लोग मुद्दों पर दिलचस्पी रखते हैं और न केवल सतही रूप से बल्कि उसके बारे में विस्तार से जानने वाले हैं.' राहुल गांधी त्रिवेंद्रम में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे. राहुल गांधी में परिपक्वता की यही कमी उनके सार्थक प्रयास को भी कमतर बना देती है.
उनके इस बयान का उत्तर भारत के लोगों पर दूरगामी असर पड़ सकता है. उनके कहने का सीधा आशय इसी से लगाया जा रहा है कि दक्षिण भारत के लोगों के मुकाबले उत्तर भारत के लोगों की राजनीतिक समझ या राजनीतिक सहभगिता दक्षिण के लोगों के स्तर की नहीं है. नॉर्थ और साऊथ के बीच में भेद पैदा करने वाले इस बयान को बीजेपी ने कैच कर लिया और लगातार उनपर हमले किए जा रहे हैं. हमला करने वालों में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा (BJP President JP Nadda) और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (UP Chief Minister Yogi Adityanath) तक हैं. इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीजेपी इस बयान को लेकर कितनी गंभीर है.
वायनाड और चिकमंगलूर ने गांधी परिवार की लाज बचाई
दरअसल राहुल गांधी का साऊथ के प्रति इतना इमोशनल होने का एक कारण यह भी है कि तीन बार से जिस क्षेत्र (अमेठी) का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, वह उनकी पुश्तैनी सीट थी इसके बावजूद भी यहां की आवाम ने इस बार उन्हें वहां से अपना प्रतिनिधि चुनने से मना कर दिया आखिर उनकी लाज वायनाड के मतदाताओं ने बचा ली अन्यथा वो इस बार संसद में दिखाई नहीं देते. दरअसल राहुल को पहले ही यह अहसास हो गया था कि वो अमेठी से चुनाव हार सकते हैं इसलिए उन्होंने एक सुरक्षित सीट ढूंढनी शुरू की जहां से उनकी जीत सुनिश्चित हो सके. बाद में वैसा ही हुआ अमेठी से वो चुनाव हार गए और केरल के वायनाड़ से उन्हें एमपी बनने का मौका मिल गया. इसके पहले 1977 की आंधी में उनकी दादी इंदिरा गांधी की इज्जत भी दक्षिण के एक संसदीय क्षेत्र ( चिकमंगलूर) ने बचाई थी. उस बार उन्हें अपनी पारंपरिक सीट रायबरेली से हार मिली थी. इंदिरा को भी अहसास हो गया था कि वो रायबरेली से चुनाव हार सकती हैं इसलिए उन्होंने चिकमंगलूर से भी पर्चा दाखिल किया था. गांधी परिवार के लिए दक्षिण हमेशा से बाहें फैलाकर स्वागत की मुद्रा में खड़ा रहै है.
1977 और 1989 में भी दक्षिण ने नहीं छोड़ा था साथ
ऐसा कई बार हुआ जब कांग्रेस उत्तर भारत से साफ हो गई पर साउथ ने भरपूर सपोर्ट किया है. 1977 में जब इमरजेंसी के चलते इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी पूरे देश में बहुत अलोकप्रिय हो गई थी उस समय कांग्रेस नॉर्थ इंडिया से लगभग साफ हो गई थी. पर दक्षिण भारत में कांग्रेस बहुमत में थी. इसी तरह बाद के कई आम चुनावों में कांग्रस पार्टी की लाज बचाते रहे हैं दक्षिण भारत के मतदाता. 1989 और 1991 में भी कांग्रेस पार्टी को उत्तर भारत ने नकार दिया पर दक्षिण भारत के मतदाताओं का समर्थन मिलता रहा.
दक्षिण से कांग्रेस को उम्मीद
देश भर में स्थानीय पार्टियों के बढ़ते वर्चस्व और बाद में बीजेपी के उभार ने कांग्रेस को उत्तर भारत में कमजोर कर दिया है. यूपी-बिहार में कांग्रेस बिल्कुल खत्म हो चुकी है पर दक्षिण के हर राज्य में अभी कांग्रेस में अभी इतनी जान है कि मौका आने पर या थोड़ी तैयारी करके लड़ाई के सिचुएशन में आ सकती है. शायद राहुल गांधी के मन में यही बात चल रही हो. कांग्रेस अगर दक्षिण भारत में भी मजबुत हो जाती है तो उसके लिए जीवनदान हो सकता है.
उत्तर भारत के मतदाता ज्यादे मैच्योर
राहुल गांधी को एक बात जरूर जान लेनी चाहिए कि उत्तर भारत के मतदाता किसी छवि के झांसे में नहीं आते. 1977 में उनकी दादी मिसेज गांधी को यहां के लोगों ने हराया तो फिर 1980 में भारी बहुमत से जिताया भी. इमरजेंसी में हुए अत्याचार के लिए पहले उन्हें सरकार से बाहर कर दिया फिर जनता पार्टी ने ठीक ढंग से काम नहीं किया तो उन्हें भी नहीं बख्शा. किसी उत्तर भारतीय को अपने किसी नेता के लिए सुसाइड करते नहीं देखा होगा ? क्या किसी उत्तर भारतीय को अपने नेता की चमचागिरी में ही सही मंदिर बनाते देखा है? उत्तर भारत में लोग नेताओं को कभी भगवान मानकर नहीं देखते हैं जिस तरह उन्हें सर पर चढ़ाते हैं उसी तरह उन्हें उतार भी देते हैं.
लोकतंत्र की सारी बुराइयां दक्षिण में भी
जिन बातों के लिए उत्तर भारत की राजनीति बदनाम है वो सारी बुराइयां दक्षिण भारत के चुनावों में देखने को मिलती हैं. जातिवाद, भाषावाद, साम्प्रादायिकता के साथ वंशवाद साउथ के हर राज्य में उतना ही चरम पर है जितना उत्तर भारत के राज्यों में है. विधायकों की खरीद-फरोख्त और दलबदल के मामले भी दक्षिण के राज्य उत्तर के राज्यों से टक्कर लेते दिखते हैं.
पहले भी ऐसे विवाद से हुआ है नुकसान
राज्यसभा के पूर्व सांसद तरुण विजय ने एक बार ग्रेटर नोएडा में नाइजीरियाई लोगों के खिलाफ हुई हिंसा के विषय में अलजजीरा चैनल में कहा था कि हम रंगभेदी होते दक्षिण भारत के लोगों के साथ कैसे रहते? तरूण विजय की इस बात को रंगभेद के तौर पर लिया गया जो जबरदस्त विवाद का कारण बना. इसी तरह यूपी-बिहार के लोगों के बारे में दिल्ली में भी बयानबाजी हो जाती है.
अरविंद केजरीवाल ने एक बार यह कह कर बवाल मोल ले लिया था कि बिहार से एक आदमी 500 रुपए की टिकट लेकर दिल्ली आता है और दिल्ली के अस्पतालों में 5 लाख रुपए का ऑपरेशन फ्री में कराकर वापस चला जाता है. लेकिन दिल्ली की भी अपनी मजबूरी है. दिल्ली पूरे देश के लोगों का कैसे उपचार कर सकती है. इसके पहेल शीला दीक्षित ने भी एक बार कुछ ऐसा ही बोलकर अपना नुकसान कर लिया था. उनका भी यही तर्क था कि हम हर साल सुविधाओं के लिए काम करते हैं लेकिन हर साल करीब 5 लाख लोग यूपी-बिहार से दिल्ली आ जाते हैं तो ऐसे में हम क्या कर सकते हैं.
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