सम्पादकीय

कसौटी पर निजता

Subhi
10 Dec 2022 5:59 AM GMT
कसौटी पर निजता
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इस कानून पर विवाद के मुख्य विषय हैं कि किन सूचनाओं को आवश्यक माना जाए और किन्हें अहस्तक्षेप की रणनीति के तहत गोपनीय रखा जाए। लेकिन हम राष्ट्र की एकता, अखंडता, संप्रभुता, जनकल्याण आदि से समझौता नहीं कर सकते हैं और न ही इसकी आड़ में वैयक्तिक गोपनीयता को कुचल सकते हैं। दूसरा मुद्दा है- वर्तमान डिजिटलीकरण युग की एक समांतर दुनिया में हो रहे डेटा के अबाध खेल पर कैसे लगाम लगाई जाए?

Written by जनसत्ता: इस कानून पर विवाद के मुख्य विषय हैं कि किन सूचनाओं को आवश्यक माना जाए और किन्हें अहस्तक्षेप की रणनीति के तहत गोपनीय रखा जाए। लेकिन हम राष्ट्र की एकता, अखंडता, संप्रभुता, जनकल्याण आदि से समझौता नहीं कर सकते हैं और न ही इसकी आड़ में वैयक्तिक गोपनीयता को कुचल सकते हैं। दूसरा मुद्दा है- वर्तमान डिजिटलीकरण युग की एक समांतर दुनिया में हो रहे डेटा के अबाध खेल पर कैसे लगाम लगाई जाए?

वर्तमान में हम तकनीकी, सूचना और संचार के युग में जी रहे हैं। जहां चाहे-अनचाहे निजी जीवन से जुड़ी अनेक सूचनाएं साझा करनी पड़ती है। ये गोपनीय और बेहद संवेदनशील भी हो सकती हैं। इन सूचनाओं की सुरक्षा उतनी ही आवश्यक है, जैसे कि भोजन के लिए खाद्य सुरक्षा।

गौरतलब है कि इन सूचनाओं का अनावश्यक सार्वजनिक होना किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास को बाधित करने से लेकर उसके जीवन की अंतिम सांस लेने तक के लिए बाध्य कर सकता है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान तकनीकी युग में सर्वाधिक दुरुपयोग इन गोपनीय सूचनाओं का हो रहा है। हमारे पास कोई मजबूत नियंत्रक मशीनरी या कानून नहीं, जिससे दुरुपयोगकर्ता को कठघरे में खड़ा किया जा

सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 के केएस पुट्टास्वामी मामले में गोपनीयता को मूल अधिकार माना है। अपने अन्य निर्णय मेनका गांधी केस में भी गोपनीयता को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पूरक कहा है। यहां तक कि मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 12 में गोपनीयता को एक मानवाधिकार का दर्जा दिया गया है। प्रश्न है गोपनीयता को मिली सैद्धांतिक स्वीकृति के बावजूद व्यावहारिकता में इसे लाने पर विवाद क्यों हैं?

सूचना अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 8(जे) की आड़ में संस्थागत गोपनीयता एवं लोक कल्याण का विषय नहीं है। इसका हवाला देते हुए लगभग एक तिहाई पूछे गए सवाल खारिज कर दिए जाते हैं। प्रश्न है कि संस्थागत गोपनीयता कैसे परिभाषित हो? इसी प्रकार श्रेया सिंघल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट पर अभिव्यक्ति को मूल अधिकार बताया। लेकिन यह निरपेक्ष तो नहीं है। हमारी भी कुछ जवाबदेही और जिम्मेदारियां हैं। सवाल है कि अभिव्यक्ति की सीमाएं कैसे तय हों?

कुछ इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69 राज्य को अधिकार देती है कि अपने निगरानी तंत्र को सशक्त करने के उद्देश्य से किसी भी कम्प्यूटरजनित सूचना पर नजर रखी जा सकती है। यह एकपक्षीय मालूम पड़ता है। इस अधिकार का दुरुपयोग गोपनीयता भंग करने का अधिकार बन गया। निस्संदेह निगरानी तंत्र सुदृढ़ किया जाए, लेकिन इसके दुरुपयोग के विरुद्ध जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

सर्वविदित है वर्तमान शासन व्यवस्था आधार केंद्रित हो चली है। यह कैसे तय हो कि इसका गलत इस्तेमाल नहीं होगा? निजी कंपनियों को दी गई सूचनाएं सेवा प्राप्ति के बाद उसे मिटाने का अभी कोई प्रावधान नहीं हैं। कंपनियां इस डेटा का मनमानी उपयोग कर रहीं हैं।

लैंगिक रुझान, राजनीतिक व धार्मिक विचारधारा की गोपनीयता आदि संवेदनशील विषयों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित हो, जो व्यक्ति की निजी पसंद हैं? बिना डेटा सुरक्षा कानून के सूचनाओं का दुरुपयोग करने वाले व्यक्ति और संस्था को न्यायालय के समक्ष कठघरे में खड़ा करना संभव नहीं है। इसलिए समय की मांग है एक मजबूत डेटा सुरक्षा कानून का होना।


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