सम्पादकीय

निजता और शिकंजा

Gulabi
29 May 2021 3:01 PM GMT
निजता और शिकंजा
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देश में नये आईटी कानून लागू होने के बाद निजता के सवाल की बहस ने लोगों का ध्यान खींचा है

राष्ट्रीय हित व अभिव्यक्ति की आजादी के द्वंद्व: देश में नये आईटी कानून लागू होने के बाद निजता के सवाल की बहस ने लोगों का ध्यान खींचा है। गत पच्चीस फरवरी को घोषित आईटी कानूनों को सरकार ने तीन माह में लागू करने की घोषणा की थी तथा सोशल मीडिया कंपनियों से निर्धारित जानकारी मांगी थी। लंबे समय से भारत के व्हाट्सएप उपभोक्ताओं की निजी जानकारी व्यापारिक उपयोग के लिये हासिल करने के लिये दबाव बनाने वाली सोशल मीडिया कंपनी इन नये कानूनों को निजता के अधिकार का हनन बताते हुए अब दिल्ली हाईकोर्ट चली गई है। दुनिया में सत्ता को बनाने व बिगाड़ने के खेल में शामिल ये कंपनियां दरअसल निरंकुश व्यवहार के लिये जानी जाती हैं। बताया जाता है कि इस साल जनवरी में फेसबुक व टि्वटर डोनाल्ड ट्रंप को हटाने की मुहिम में एकजुट हो गए थे। कई विवादों के चलते फेसबुक के मुखिया को अमेरिकी सीनेट में तलब भी किया गया था। बाइडेन प्रशासन भी अब इन कंपनियों को जवाबदेह बनाने की मुहिम में जुटा है। अमेरिका में इन भीमकाय कंपनियों को छोटे उद्यमों में बदलने की मांग हो रही है। निजता के अधिकारों की दलील देने वाले फेसबुक पर विगत में उपभोक्ताओं का डाटा व्यावसायिक उपयोग के लिये बेचने के भी आरोप लगे थे। ऐसे वक्त में जब चीन ने इन कंपनियों पर रोक लगाकर अपना सोशल मीडिया विकसित कर लिया है तो अमेरिका व यूरोप से बड़े बाजार व बड़ी जनसंख्या वाला भारत इनके व्यावसायिक हितों के निशाने पर है। निस्संदेह भारत कोई खाला का घर नहीं है कि ये भीमकाय कंपनियां निजता व लोकतांत्रिक अधिकारों की दलीलों के साथ व्यावसायिक हितों को अंजाम दें। भारत में पहले आईटी कानून लचर थे और इन कंपनियों के निरंकुश व्यवहार पर नियंत्रण करने व जवाबदेही तय करने में सक्षम नहीं थे। इन नये कानूनों के खिलाफ व्हाट्सएप अदालत चला गया है तो टि्वटर ने कहा है कि वह उन कानूनों में परिवर्तन का समर्थन करता रहेगा, जो स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति में बाधक हैं।


वहीं सरकार अपने स्टैंड पर कायम है, उसका कहना है कि वह निजता के अधिकार की पक्षधर है लेकिन कोई भी अधिकार निरंकुश व पूर्ण नहीं होता। साथ ही यह भी कि एंड-टू-एंड एनक्रिप्शन भंग होने की दलीलें हर आम उपभोक्ता के बाबत नहीं है। सरकार की दलील है कि यह कानून केवल उन परिस्थितियों में लागू होगा जहां राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति तथा शांति भंग होने से जुड़े मामले सामने होंगे। निस्संदेह जब देश में सांप्रदायिक सौहार्द भंग करने और देश विरोधी मामलों में फर्जी खबरों का उफान तेजी पर है तो खबर फैलाने वाले मूल स्रोत तक पहुंचना जरूरी भी है। निस्संदेह, जवाबदेही व जिम्मेदारी तो जरूरी है लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि कहीं सरकार का व्यवहार निरंकुश न हो जाये और वह निजता व अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगाने लगे क्योंकि कौन-सी खबर आपत्तिजनक है, इसका निर्धारण भी तो सरकार के अधिकारी ही तय करेंगे। इससे जुड़ी दूसरी चिंता यह भी है कि ये कानून मीडिया संस्थानों के डिजिटल एडीशनों पर भी लागू होंगे, जिसमें पाठक अपनी प्रतिक्रिया देते रहते हैं, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन सरकार इन कानूनों पर किसी तरह पीछे हटती नहीं दिख रही है। सरकार को इससे जुड़ी तमाम आशंकाओं का सार्वजनिक रूप से निराकरण करना चाहिए। बहरहाल, सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों से नियमों के पालन की स्टेटस रिपोर्ट मांगी है। दरअसल, सरकार ने नयी गाइडलाइन के हिसाब से सोशल मीडिया कंपनियों को भारत में चीफ कॉम्प्लायंस अफसर, नोडल कॉन्टेक्ट पर्सन और रेसिडेंट ग्रेवांस अफसर की नियुक्ति करने को कहा था, ताकि सोशल मीडिया पर प्रसारित आपत्तिजनक सामग्री के बाबत जानकारी व कार्रवाई के बाबत पूछा जा सके। ये अधिकारी भारत में रहने वाले होने चाहिए, जिनसे उपभोक्ता संपर्क कर सकें। साथ ही पंद्रह दिन में शिकायत का निस्तारण कर सकें। नये कानून के दायरे में मूल कंपनी व सहायक कंपनी भी आती है, जिन्हें कंपनी के एप का नाम, वेबसाइट और सर्विस से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराने को कहा गया है।

क्रेडिट बाय दैनिक ट्रिब्यून

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