सम्पादकीय

मूर्खता का सिद्धांत

Gulabi
19 Oct 2021 4:19 AM GMT
मूर्खता का सिद्धांत
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बाबा आईन्स्टीन ने पता नहीं क्या सोचकर कहा था, ''केवल दो चीज़ें अनंत हैं, एक ब्रह्मंड और दूसरी मानवीय मूर्खता

बाबा आईन्स्टीन ने पता नहीं क्या सोचकर कहा था, ''केवल दो चीज़ें अनंत हैं, एक ब्रह्मंड और दूसरी मानवीय मूर्खता। लेकिन ब्रह्मंड के बार में मैं पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकता।'' इसका अर्थ हुआ कि केवल मानवीय मूर्खता के बारे में ही पूर्ण विश्वास के साथ सब कहा जा सकता है। उनके सापेक्षता के सिद्धांत को अगर मूर्खता पर लागू किया जाए तो उसे समय में नहीं बांधा जा सकता। आदिकाल से मूर्खता समय से परे रही है। मानवीय मूर्खता के इस ़फार्मूले पर निरंतर शोध करने और उससे निरंतर लाभ लेने वाले को डिज़ाइनर विचारक कहलाते हैं। उसे इस बात का पूर्ण ज्ञान होता है कि मौ़के के हिसाब से मूर्ख को डिज़ाइनर विचार का कौन सा लबादा ओढ़ाना है। जहां तक डिज़ाइनर विचारक होने के लिए निर्धारित योग्यता का सवाल है तो इसके लिए उतनी ही संवैधानिक योग्यता चाहिए, जितनी सेंट्रल विस्टा के चैंबर में पहुंचने के लिए अनिवार्य है। आजकल सभी राजनीतिक दलों ने एक मत और स्वर से विधायक या सांसद होने के लिए जो अनिवार्य योग्यताएं निर्धारित की हैं, उनके अनुसार व्यक्ति का लुच्चा होना ज़रूरी है। जो शख्स जितना ज़्यादा लुच्चा होगा, लोकतंत्र के मंदिर के घंटे तक उसके हाथ पहुंचने की उतनी ही अधिक गॉरन्टी है। इसके बाद वह ताउम्र जन सेवा करते हुए इसे अपना ़खानदानी धंधा बना सकता है।


अगर उसे एक पार्टी के चूल्हे पर अपनी बटलोई रखने की जगह न मिले तो वह दूसरी के पार्टी के चूल्हे पर भी अपनी दाल पका सकता है। वजह, सभी मौसेरे जो ठहरे। लेकिन लोकतंत्र के मंदिर में निरंतर घंटा बजाने के लिए डिज़ाइनर विचारक का ताउम्र शोधार्थी होना अत्यंत अनिवार्य है। जिस व्यक्ति में नित नए विचारों के उत्पादन, मार्केटिंग और संचार का कौशल जितना अधिक होगा, तिरंगे में लिपटने तक चूल्हे बदलते हुए जनसेवा में संलिप्त रहने की उसकी योग्यता उतनी ही अधिक होगी। एक डिज़ाइनर विचारक कपड़ों की तरह नित नए विचार बदलता रहता है। बाज़ मर्तबा वह मौ़के के हिसाब से दिन में कई बार कपड़े ही नहीं विचार भी बदलता है। उसे अपना थूका हुआ चाटने में कोई दि़क़्कत महसूस नहीं होती।

भला अपने माल से क्या घृणा? जब चाहा, पब्लिक में नया विचार पेल दिया, जब चाहा वापस ले लिया। आ़िखर जन सेवक जो ठहरे। जो बात जनता को अच्छी न लगे, उसे वापस लेने में क्या हज़र्? लेकिन कई बार हवा में थूका हुआ अपने ऊपर ही गिर जाता है। ऐसी स्थिति में जो जन सेवक जितना अधिक बेशर्म होगा, उतनी ही सहजता के साथ 'दा़ग अच्छे हैं' बोलकर अपने कपड़ों को स़र्फ एक्सेल से सा़फ कर लेगा। क्योंकि इन कपड़ों को धोने का बोझ टैक्स के रूप में वही पब्लिक उठाती है जो बिना किसी चिंता के इन डिज़ाइनर विचारों का आनंद उठाती है। अब मनोरंजन के लिए थोड़ा कर अदा कर भी दिया तो क्या हज़र्? फिर लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह ़कीमत कुछ भी नहीं। वैसे भी भावनाविहीन व्यक्ति उत्पादित ़खुशी में मगन रहते हैं। जनता को इस बात से भी ़फ़र्क नहीं पड़ता कि डिज़ाइनर विचारक किस क्षेत्र से है। उसे तो बस तालियां पीटनी हंै। वह कभी जनसभाओं में बैठ कर बजाती है, तो कभी धर्म सभाओं में या कभी तमाशा देखते हुए। उसे व्यक्ति पूजा भाती है, फिर चाहे वह राजनीति का ़फ़कीर हो या धर्म का या फिर कोई सिनेमाई नट। वह जितनी सहजता से राजनीतिक जन सभाओं में तालियां पीटती है, उतनी ही सहजता से धार्मिक समागमों, सम्मेलनों या सिनेमा देखते हुए डिज़ाइनर विचारकों को सुनते-देखते बिना किसी भेदभाव के हाथ चलाती रहती है। दरअसल, अंधेरी में जीती जनता को डिज़ाइनर विचारकों की टॉर्च की वह रोशनी पसंद है, जो उन्हें बार-बार अंधेरी खाई में धकेलती रहे।

पी. ए. सिद्धार्थ,
लेखक ऋषिकेश से हैं
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