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सम्पादकीय
परिवारवाद के खिलाफ प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान वंशवादी राजनीति के विरुद्ध निर्णायक सिद्ध हो सकता है
Gulabi Jagat
21 March 2022 6:05 AM GMT
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उन्होंने कहा कि भारतीय राजनीति को परिवारवाद खोखला कर रहा है और हमें इससे निपटना होगा
उमेश चतुर्वेदी। वर्ष 1994 में आई फिल्म 'सरदार' का एक दृश्य है। उसमें दिखाया है कि सरदार पटेल शाम को थके-हारे घर लौटे हैं। बिस्तर पर लेट ही रहे हैं कि अपनी बेटी मणिबेन से घर आई डाक के बारे में पूछते हैं। मणिबेन बताती हैं कि भाई दिल्ली आना चाहता है। पटेल मणिबेन को सुझाव देते हैं कि वह लौटती डाक से चिट्ठी भेज दे कि जब तक वह मंत्री हैं, तब तक वह दिल्ली आने की न सोचे। इसका अंतर्निहित संदेश यही है कि पटेल जब तक जीवित रहे, उन्होंने अपने परिवार के किसी व्यक्ति को राजनीति में उन्होंने आगे नहीं बढ़ाया। असल में यह विवरण विगत 15 मार्च को हुई भाजपा संसदीय दल की बैठक में परिवारवाद की राजनीति पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रहार से प्रासंगिक प्रतीत होता है। उसमें प्रधानमंत्री ने दो-टूक कहा था कि हालिया विधानसभा चुनावों में पार्टी नेताओं के बेटे-बेटियों के टिकट उनके कहने पर काटे गए। उन्होंने कहा कि भारतीय राजनीति को परिवारवाद खोखला कर रहा है और हमें इससे निपटना होगा।
वैसे तो लोकतंत्र में परिवारवाद का कोई आधार नहीं होना चाहिए, लेकिन आज शायद ही कोई पार्टी हो, जहां परिवारवाद नहीं है। कुछ छोटी पार्टियां तो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह काम कर रही हैं। कह सकते हैं कि लोकतंत्र के खांचे में परिवार केंद्रित यह नए तरह का राजतंत्र है। यह विडंबना ही है कि जिस कांग्रेस में पटेल जैसे नेताओं का वंशवाद के खिलाफ सख्त रुख रहा, उसी के शीर्ष नेतृत्व पर परिवारवाद पूरी तरह हावी रहा। हालांकि अब इस पर सवाल उठ रहे हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इसकी कुछ ठोस परिणति भी निकलेगी। कांग्रेस में वंशवादी जड़ें बहुत गहरी हैं। वर्ष 1928 में मोतीलाल नेहरू दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बने। इसके अगले
साल यानी 1929 में उन्होंने अपने पुत्र जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाने के लिए अभियान चलाया और 40 वर्षीय जवाहर को अध्यक्ष बनवाने में सफल रहे। तब जवाहर से 14 साल बड़े पटेल का अध्यक्ष बनना तय था। पटेल 1930 में अध्यक्ष बन सके।
वैसे कुछ कांग्रेस नेता समय-समय पर परिवारवाद के विरुद्ध आवाज भी उठाते रहे। उनमें श्री बाबू के नाम से विख्यात बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का नाम प्रमुख है। 1957 के चुनाव में उनकी परिक्रमा करने वालों ने उनके बेटे शिवशंकर को टिकट देने की मांग रखी। तब श्री बाबू ने इसे सिद्धांतहीन बताते हुए कहा था कि परिवार में एक ही व्यक्ति को टिकट मिलना चाहिए। कांग्रेस में वंशवाद का दूसरा उदाहरण भी गांधी-नेहरू परिवार से ही है। 1958 में पं. नेहरू ने कांग्रेस कार्यसमिति के 24 सदस्यों में 41 वर्षीय इंदिरा गांधी को शामिल कराया और इसके अगले ही साल इंदिरा पार्टी की अध्यक्ष बना दी गईं। नेहरू के इस कदम का देहरादून से संसद सदस्य और उनके नजदीकी महावीर त्यागी ने तीखा विरोध किया था। नेहरू को लिखे पत्र में त्यागी ने कहा था, 'इस ख्याल में मत रहना कि इंदु के प्रस्तावकों और समर्थकों में जो होड़ हो रही है, यह इंदु के व्यक्तित्व के असर से है। सौ फीसद यह आपको खुश करने के लिए किया जा रहा है। यह समझ लो कि अब कांग्रेस में पदलोलुपता और व्यक्तिवाद का वातावरण छा गया है।' परिवारवाद को लेकर लोकसभा में डा. लोहिया की भी नेहरू से तीखी झड़प हुई थी।
आज कानून के मुताबिक हर पार्टी में निश्चित अवधि के बाद चुनाव होता है। हालांकि हकीकत में यह महज औपचारिकता होती है, क्योंकि चुनाव पहले से तय होता है और अमूमन परिवार के सदस्य को ही चुना जाता है। पूर्वोत्तर के राज्य मेघालय में पीए संगमा के बेटे कोनराड संगमा सत्ता संभाले हुए हैं। पश्चिम के महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे तो धुर दक्षिण स्थित तमिलनाडु में एम. करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन सरकार चला रहे हैं। ठाकरे की सरकार में तो उनके बेटे आदित्य भी मंत्री हैं। वहीं स्टालिन का पूरा कुनबा ही राजनीति में सक्रिय है। आंध्र में वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन पूरी धमक के साथ मुख्यमंत्री बने हुए हैं। यहां तो विपक्षी तेलुगु देसम तक में परिवारवादी विरासत का बोलबाला है। पड़ोसी तेलंगाना में भी अलग राज्य के मुद्दे पर केंद्रित तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसे दल के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की पार्टी पूरी तरह परिवार केंद्रित हो गई है। उनके बेटे केटीआर को उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जा रहा है। कर्नाटक में एचडी देवेगौड़ा की तीसरी पीढ़ी
सक्रिय राजनीति में उतर आई है। ओडिशा में लंबे अर्से से सत्ता पर काबिज नवीन पटनायक भी अपने पिता बीजू पटनायक की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यही हाल झारखंड का है। बिहार में भी लालू प्रसाद की राजद में उनके बेटे तेजस्वी की ताजपोशी हो चुकी है।
इसे दिलचस्प कहें या विडंबना, लेकिन अधिकांश वंशवादी और परिवारवादी पार्टियां सैद्धांतिक रूप से उस लोहिया की समाजवादी विचारधारा को मानने का दावा करती हैं, जो वंशवाद और परिवारवाद के घनघोर विरोधी थे। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि लोकतंत्र के माई-बाप मतदाताओं को यह तथ्य समझना होगा कि लोकतांत्रिक राजतंत्र समानता के सिद्धांत का सबसे बड़ा दुश्मन है। जिस दिन मतदाता यह समझने लगेगा, वह समानता आधारित लोकतंत्र का प्रस्थान बिंदु होगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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