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अगले पेराई सत्र के लिए केंद्र ने गन्ने के उचित और लाभकारी मूल्य यानी एफआरपी में पांच रुपए की बढ़ोतरी घोषित की है।
अगले पेराई सत्र के लिए केंद्र ने गन्ने के उचित और लाभकारी मूल्य यानी एफआरपी में पांच रुपए की बढ़ोतरी घोषित की है। हर साल पेराई सत्र शुरू होने से पहले सरकार एफआरपी घोषित करती है। फिर कुछ राज्य सरकारें राज्य परामर्श मूल्य यानी एसएपी घोषित करती हैं, जो केंद्र द्वारा तय कीमत से कुछ अधिक होती है। चीनी मिलें किसानों से इसी कीमत पर गन्ना खरीदती हैं। किसान मांग कर रहे हैं कि गन्ने की कीमत प्रति क्विंटल चार सौ रुपए की जाए। इसे लेकर वे आंदोलन भी कर रहे हैं।
ऐसे में पांच रुपए की बढ़ोतरी से वे कितना संतुष्ट होंगे अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। गन्ना किसानों की काफी समय से शिकायत है कि उन्हें वाजिब कीमत नहीं मिल पाती। पिछले कुछ सालों में खाद, बीज की कीमत और मजदूरी लगातार बढ़ते जाने की वजह से गन्ने की खेती करना महंगा काम होता गया है। गन्ना नगदी फसल है, इसलिए किसान इसे उगाने को आकर्षित होते हैं, मगर इसमें लागत बढ़ने और फसल की बिक्री की गारंटी न होने, उसका भुगतान समय पर न मिल पाने की वजह से बहुत सारे किसानों ने गन्ना बोना बंद कर दिया है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पिछले दो सालों से किसानों को मिलों से अपना बकाया पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
केंद्र सरकार का दावा है कि वह किसानों की आय दोगुनी करने के उपायों पर तेजी से काम करेगी। मगर स्थिति यह है कि पिछले सात सालों में खाद, बीज, कीटनाशकों आदि की कीमत लगातार बढ़ती गई है, मगर उसके अनुपात में फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ा है। इसके अलावा ज्यादातर राज्यों में व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम कीमत पर किसानों से अनाज खरीदते हैं। फिर भी खुदरा बाजार में खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य की तुलना में कई गुना अधिक हैं।
इसलिए किसानों की मांग है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दी जाए। न्यूनतम मजदूरी की दर तय है, खाद, बीज, कीटनाशक बनाने वाली कंपनियां अपने ढंग से इनकी कीमत तय करती हैं। सरकार ने खाद वगैरह पर से सबसिडी हटा ली है। कई राज्यों में खेती के लिए मिलने वाली बिजली की दर किसानों की कमर तोड़ देती है। फिर प्राकृतिक आपदा का कहर हर साल बरपता ही है। इस तरह किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा होती गई है। फिर गन्ना, आलू, फल और सब्जियों जैसी कुछ नगदी फसलें उगा कर वे अपनी स्थिति बेहतर बनाने का प्रयास करते हैं, तो उनकी न तो वाजिब कीमत मिल पाती है और न समय पर उनका भुगतान मिल पाता है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिन किसानों ने कर्ज लेकर खेती की है, उनकी क्या दशा होती होगी।
भारत गन्ने का बड़ा उत्पादक देश है। हर साल वह बड़े पैमाने पर चीनी का निर्यात करता है। गन्ने से चीनी के अलावा कुछ दूसरे उत्पाद भी तैयार होते हैं। अब इससे एथेनॉल बनाने पर सरकार का जोर है। एथेनॉल को पेट्रोल में मिला कर बेचा जाता है, जो कि पेट्रोल की कीमत नियंत्रित करने में मददगार होता है। अगले पेराई सत्र में गन्ने से एथेनॉल का उत्पादन बढ़ाने पर बल है। इससे चालीस हजार करोड़ रुपए के राजस्व की उगाही का अनुमान है। फिर सरकार को गन्ने की खेती और अंतिम रूप से मिलों तक पहुंचाने में आने वाली लागत का व्यावहारिक आकलन कर उचित कीमत तय करने में क्यों गुरेज होना चहिए।
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