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- दिखावा तो दिखावा ही
असल सवाल पर गौर ना कर प्रतीकात्मक रूप से न्याय का भ्रम पैदा करना अब एक बड़ा वैश्विक चलन है। दुनिया भर की ऐसी तमाम सरकारें भी इसमें लगी हुई हैं, जो असल में समाज में बराबरी और न्याय के खिलाफ काम कर रही होती हैं। वैसे में नस्ल, जाति, लिंग या ऐसी ही पहचानों के आधार पर इंसाफ देने का इम्प्रेशन बना देना सबसे आसान रास्ता होता है। इससे संबंधित सरकार या संस्था या उद्योगों को अपनी नैतिक साख का दावा करने का मौका मिलता है। लेकिन चूंकि ऐसे कदमों में दम नहीं होता, इसलिए जल्द ही उनका सच भी सामने आ जाता है। ऐसा ही अभी कई फैशन ब्रांडों के साथ हुआ है। बीते हफ्ते विश्व बेंचमार्किंग एलायंस (डब्लूबीए) का जेंडर बेंचमार्क जारी हुआ। उसमें दिखाया गया कि सबसे बड़े 35 परिधान ब्रांडों में से लगभग दो-तिहाई ने सार्वजनिक रूप से लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की दिशा में कदम नहीं उठाया है। केवल 14 कंपनियों ने लिंग-विशिष्ट नीतियों को लागू किया है। सूचकांक ने लिंग वेतन में अंतर, नेतृत्व में प्रतिनिधित्व, हिंसा को रोकने के लिए नीतियां और उत्पीड़न जैसे कारकों की समीक्षा कर कंपनियों को 100 में 29 का औसत स्कोर दिया। डब्लूबीए ने इसे "चिंताजनक" बताया है।