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सम्पादकीय
दबाव मुक्त भारतीय विदेश नीति, अमेरिका को यह समझना चाहिए कि भारत जैसे देश पर दबाव डालना व्यर्थ
Gulabi Jagat
17 April 2022 4:37 PM GMT

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दबाव मुक्त भारतीय विदेश नीति
विवेक काटजू। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को 50 से अधिक दिन बीत गए, लेकिन रूसी हमले रुकने का कोई संकेत नहीं मिल रहा। यूक्रेन ने नाटो देशों से मिली मदद के दम पर जिस बहादुरी से प्रतिरोध किया है, उसके चलते रूस को अपनी रणनीति और लक्ष्यों में परिवर्तन करना पड़ा है। लगता है अब वह यूक्रेन के पूर्वी हिस्से पर कब्जा करना चाहता है। उसकी मंशा यूक्रेन के सैन्य ढांचे और नागरिक प्रतिष्ठानों को भी ध्वंस करने की लगती है। चूंकि रूस और यूक्रेन की वार्ता में कोई प्रगति नहीं हुई, इसलिए यही लगता है कि यह युद्ध अगर महीनों नहीं खिंचा तो कम से कम कुछ हफ्तों तक जरूर चल सकता है।
रूसी आक्रमण ने दुनिया भर में भारी उथल-पुथल मचाई है। दुनिया अभी कोविड महामारी से ही पूरी तरह नहीं उबर पाई है। इस महामारी ने विश्व अर्थव्यवस्था पर घातक प्रभाव डाला। अब रूसी आक्रमण ने वैश्विक आर्थिक कठिनाइयों को और बढ़ा दिया है। वास्तव में इन दोनों के मिले-जुले प्रभाव ने कई देशों को कंगाली की कगार पर पहुंचा दिया है। यह युद्ध जितना लंबा खिंचेगा, उतना ही दुनिया विशेषकर कमजोर देशों को क्षति पहुंचाएगा।
युद्ध का असर ईंधन की कीमतों पर खासा महसूस किया जा रहा है। कच्चे तेल के दाम करीब सौ डालर प्रति बैरल के दायरे में चल रहे हैं। प्राकृतिक गैस की कीमतों पर भी भयावह असर देखा जा रहा है, जिसने भारत सहित दुनिया भर में लोगों की मुश्किलें बढ़ाई हैं। चूंकि रूस और यूक्रेन प्रमुख गेहूं निर्यातक देश हैं तो युद्ध के कारण न केवल इस प्रमुख खाद्यान्न की कीमतें काफी ऊपर चली गई हैं, बल्कि उसकी किल्लत भी दिख रही है। इस बीच यह अच्छी बात रही कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़ा दिल दिखाते हुए कहा कि यदि विश्व व्यापार संगठन अनुमति दे तो भारत वैश्विक स्तर पर गेहूं की आपूर्ति के लिए तत्पर है।
यूक्रेन संकट ने भारत की कूटनीतिक चुनौतियां भी कई गुना बढ़ा दी हैं। इसमें क्षेत्रीय और उससे परे दोनों परिदृश्य शामिल हैं। क्षेत्रीय चुनौती भारत के पड़ोसी नाजुक देशों की कमजोरी का लाभ उठाकर चीन द्वारा उनमें पैठ बढ़ाने के प्रयास से जुड़ी है। इस लिहाज से भारत को श्रीलंका, म्यांमार और अफगानिस्तान पर विशेष ध्यान देना होगा। श्रीलंका दिवालिया सा हो गया है। उसने विदेशी ऋण की समय से अदायगी नहीं की। वहां सरकार के पास खाद्य एवं ईंधन आयात के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं है। वह अपने मददगारों विशेषकर भारत और चीन की ओर निहार रहा है। जबकि वास्तविकता यही है कि श्रीलंका की मौजूदा दुर्गति का एक बड़ी हद तक जिम्मेदार चीन ही है, जिसने तमाम अव्यावहारिक बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए कोलंबो को कर्ज मुहैया कराया। जब श्रीलंका सरकार उसका कर्ज नहीं चुका पाई तो उसे हंबनटोटा बंदरगाह और उसके आसपास की जमीन चीन को लीज पर देनी पड़ी। अब चीन मदद के नाम पर टालमटोल कर रहा है, वहीं भारत उसे ईंधन एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में लगा है। हालांकि श्रीलंका की मदद में सावधानी बरतते हुए सुनिश्चित करना होगा कि वह श्रीलंकाई जनता के पास पहुंचे, न कि उस राजपक्षे परिवार के पास, जो वहां बहुत अलोकप्रिय हो गया है। श्रीलंका का निकट भविष्य बहुत अनिश्चित नजर आ रहा है।
म्यांमार भी गत वर्ष फरवरी से ही सैन्य शासन के साये में है और वहां आंग सान सू की सहित अन्य नेता राजनीतिक कैद में हैं। अन्य देशों के साथ भारत ने भी वहां लोकतंत्र की वापसी के लिए आवाज उठाई है, लेकिन भारत को अपने हितों पर भी नजर रखनी होगी, क्योंकि चीन वहां अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। ध्यान रहे कि म्यामांर भारत के संवेदनशील पूर्वोत्तर क्षेत्र के एकदम नजदीक है। अफगानिस्तान पर तालिबान की पकड़ मजबूत है। उसे आंतरिक स्तर पर कोई चुनौती मिलने के संकेत नहीं दिखते। महिलाओं के लिए उदार नियम बनाने के दबाव के बावजूद चीन और रूस के साथ उसके संबंध मजबूत होने के आसार हैं। अफगानिस्तान में भारत के गहरे रणनीतिक हित हैं। यह अच्छी बात है कि पर्दे के पीछे भारत कुछ सक्रियता दिखा रहा है और अफगान लोगों की आर्थिक दुर्दशा की स्थिति में भारत सरकार ने वहां गेहूं और दवाइयों की आपूर्ति की। अपने हितों की रक्षा के लिए भारत को काबुल में अपना दूतावास पुन: खोलना चाहिए। इसका अर्थ तालिबान को मान्यता प्रदान करना नहीं होगा। पाकिस्तान की स्थिति भी डांवाडोल है, लेकिन इसके आसार नहीं कि वह भारत के प्रति नकारात्मकता का परित्याग करेगा। नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने जरूर व्यापारिक रिश्तों की बहाली की बात की है, लेकिन भारत नीति तो पाकिस्तानी फौज ही तय करेगी।
पड़ोस में कूटनीतिक जटिलताओं के साथ ही भारत के लिए नाटो और रूस के बीच संतुलन साधने की भी चुनौती है। जहां एक ओर अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी रूस को लेकर भारत पर दबाव डाल रहे हैं तो दूसरी ओर रूस की अपेक्षाएं हैं कि इस समय भारत संतुलित रवैये का परिचय दे। स्वतंत्रता के समय से ही भारतीय विदेश नीति ने स्वतंत्र नीतियों की ओर रुख किया। मौजूदा सरकार सहित अभी तक की सभी सरकारों ने कभी भी किसी दबाव को हावी नहीं होने दिया और न ही किसी देश का अंधानुकरण किया। अमेरिका चाहता है कि भारत रूस के हमले की निंदा करने के साथ ही उससे ऊर्जा एवं सामरिक आयात भी बंद करे। भारत ने स्पष्ट रूप से रूस के आक्रमण को गलत बताते हुए कहा है कि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय ढांचे का यही दस्तूर है कि देशों की संप्रभुता एवं भौगोलिक अखंडता का सम्मान किया जाए और किसी भी प्रकार के विवाद का समाधान संवाद से होना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही भारत ने रूस के खिलाफ अनर्गल प्रलाप और उससे अपने आर्थिक रिश्ते कमजोर करने से भी परहेज किया है। यही नीति जारी रहनी चाहिए। अमेरिका उन मुद्दों को लेकर भारत पर दबाव बढ़ा रहा है, जिनका रूस से कोई लेना-देना नहीं। एक मसला मानवाधिकारों का है। इस पर भारत ने पर्याप्त रूप से प्रतिकार किया है।
(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
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