सम्पादकीय

राष्ट्रपति चुनाव : आदिवासियों के प्रति नजरिया बदलें, आया सालों से पैठ बन चुकी सामाजिक दूरियां का मिटाने का वक्त

Subhi
20 July 2022 2:52 AM GMT
राष्ट्रपति चुनाव : आदिवासियों के प्रति नजरिया बदलें, आया सालों से पैठ बन चुकी सामाजिक दूरियां का मिटाने का वक्त
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सोमवार को हुए मतदान के बाद राजग के संख्याबल को देखते हुए आदिवासी नेत्री और झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय है। इससे एक उम्मीद बंधती है

पत्रलेखा चटर्जी; सोमवार को हुए मतदान के बाद राजग के संख्याबल को देखते हुए आदिवासी नेत्री और झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय है। इससे एक उम्मीद बंधती है कि 15वें राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण के बाद देश की आदिवासी आबादी की तरफ लोगों का ध्यान जाएगा और उन्हें बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाने के बारे में चर्चा जोर पकड़ेगी। देश की आदिवासी आबादी के बारे में सामान्य रूढ़ियों से अलग हटकर सोचे जाने की तत्काल आवश्यकता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में आदिवासियों की आबादी कुल आबादी का करीब 8.6 फीसदी यानी 10.4 करोड़ थी।

पिछले वर्ष दिसंबर में प्रेस सूचना ब्यूरो ने एक आधिकारिक बयान में आदिवासी आबादी (एसटी) के बीच प्रगति के विभिन्न क्षेत्रों को सूचीबद्ध किया था। जैसे, बयान में कहा गया था कि वर्ष 2001 में आदिवासियों की साक्षरता दर 47.1 फीसदी थी, जो 2011 में बढ़कर 59 फीसदी हो गई। इसके अलावा, समय-समय पर होने वाले श्रमबल सर्वेक्षण रिपोर्ट (जुलाई 2019-जून 2020) में बताया गया है कि एसटी की साक्षरता दर बढ़कर 70.1 फीसदी हो गई है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (यूडीआईएसई) प्लस रिपोर्ट के अनुसार, सीनियर सेकेंडरी (कक्षा IX-X) स्तर पर एसटी छात्रों का सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) 2012-13 में 62.4 फीसदी था, जो 2019-20 में बढ़कर 76.7 फीसदी हो गया है।

ये सभी अच्छी खबरें हैं। लेकिन विभिन्न मोर्चों पर प्रगति के बावजूद देश की आदिवासी आबादी कई क्षेत्रों में पीछे है और उनके लिए वैधानिक आरक्षणों के अलावा और भी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय के समर्थन से मानव विकास संस्थान (आईएचडी) द्वारा लाई गई एक नई रिपोर्ट- 'अनुसूचित जनजाति मानव विकास रिपोर्ट 2022' बताती है कि एसटी समुदाय स्वास्थ्य एवं पोषण के अधिकांश संकेतकों पर अन्य सामाजिक समूहों से पीछे है। हालांकि एसटी में बच्चों के बचने की दर में सुधार हुआ है, लेकिन पांच साल से कम उम्र के आदिवासी बच्चों की मृत्यु दर दुनिया में सबसे ज्यादा है।

यह रिपोर्ट मिली-जुली तस्वीर पेश करती है। एक तरफ जहां अनुसूचित जनजाति आबादी और अन्य समुदायों के बीच बुनियादी सामाजिक सेवाओं, विशेष रूप से बिजली, पीने के पानी की सुविधा, आवास, स्कूल में उपस्थिति, 18 वर्ष से कम उम्र में मृत्यु, पोषण और टीवी व मोबाइल फोन का स्वामित्व-तक पहुंच में असमानताओं की खाई कम होती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ, उच्च शिक्षा, कंप्यूटर कौशल और आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी कंप्यूटरों तक पहुंच जैसी नई या उन्नत क्षमताओं व सुविधाओं के मामले में दरार बढ़ गई है। आधिकारिक आंकड़े इन महत्वपूर्ण अंतरालों पर भी ध्यान देते हैं, जो आदिवासी समुदायों के विकास को पटरी से उतारते हैं।

स्वच्छता की बुनियादी सुविधाओं की बात करें, तो जिन घरों में साफ-सफाई की उचित सुविधा नहीं है, उनमें डायरिया, पेचिश और टाइफाइड जैसी बीमारियों का खतरा अच्छी स्वच्छता सुविधाओं वाले परिवारों की तुलना में अधिक होता है। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-2021) के अनुसार, महाराष्ट्र जैसे औद्योगिक राज्य में मात्र 66 फीसदी अनुसूचित जनजाति के परिवारों में ही शौचालय की सुविधा है, जबकि जो परिवार आदिवासियों, दलितों एवं अन्य पिछड़ा वर्गों के नहीं हैं, उनके 92 फीसदी घरों में यह सुविधा उपलब्ध है। यह मुझे अपनी उस रिपोर्ट की याद दिलाता है, जो मैंने 2007 में लिखी थी।

उस वर्ष ओडिशा के तीन आदिवासी बहुल जिले-कोरापुट, रायगडा और कालाहांडी हैजा के प्रकोप के कारण चर्चा में थे। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि इन तीन जिलों में हैजा और हैजा जैसी अन्य बीमारियों से 155 लोगों की मृत्यु हो गई। प्रभावित जिलों में आदिवासियों के बीच काम करने वाले एक एनजीओ से मैंने बात की, तो उसके एक अधिकारी ने बताया कि डॉक्टरों की कमी और स्थानीय स्वास्थ्य तंत्र के कमजोर ढांचे के कारण मृत्यु में इजाफा हुआ। इन आदिवासी इलाकों में कर्मचारियों की कमी के कारण आपात स्थिति से निपटने के लिए दूसरे जिलों से डॉक्टरों की कई टीम बुलानी पड़ी थीं।


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