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केंद्रीय बजट में ऐसे कमजोर परिवारों की सहायता के लिए अतिरिक्त प्रावधान करने चाहिए
अगले हफ्ते जब केंद्रीय बजट पेश किया जाएगा, तब उम्मीद है कि बढ़ते रोजगार संकट और बढ़ती गरीबी की परस्पर जुड़ी चुनौती को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी। यह भी उम्मीद है कि आने वाला बजट बढ़ती आर्थिक असमानताओं को दूर करेगा। सबसे निचले पायदान पर रहने वाले लोगों के पास कोई पारिवारिक संपत्ति या सामाजिक सुरक्षा नहीं है। केंद्रीय बजट में ऐसे कमजोर परिवारों की सहायता के लिए अतिरिक्त प्रावधान करने चाहिए।
शहरी गरीबों के लिए मनरेगा की तर्ज पर शहरी रोजगार की पहल हो सकती है और अर्थव्यवस्था में सुधार होने तक मुफ्त खाद्य वितरण को जारी रखा जा सकता है। चूंकि रोजगार संभवत: सबसे बड़ी चिंता है, और जनसंख्या विस्फोट के चलते देश का जनसांख्यिकीय लाभांश खतरे में है, क्योंकि रोजगार चाहने वाले युवा दिन-ब-दिन हताश होते जा रहे हैं, इसलिए हमें सार्वजनिक खर्च में तेज वृद्धि और कार्यान्वयन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने वर्ष 2021 के दौरान कई बड़ी पहल की, जिनमें ई-श्रम पोर्टल का उद्घाटन, ईपीएफओ से जुड़ी आत्मनिर्भर भारत योजना, गुरुग्राम (मानेसर), शाहजहांपुर, हरिद्वार, विशाखापट्टनम, मेरठ और तिनसुकिया (असम) में नए ईएसआईसी अस्पताल की स्थापना आदि शामिल हैं। दिसंबर, 2021 का एक आधिकारिक बयान बताता है कि रोजगार सृजन को बढ़ावा देने और कोविड-19 महामारी के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव को कम करने के लिए, श्रम और रोजगार मंत्रालय ने 30 दिसंबर, 2020 को ईपीएफओ से जुड़ी आत्मानिर्भर भारत रोजगार योजना (एबीआरवाई) से संबंधित अधिसूचना जारी की।
एबीआरवाई का उद्देश्य अनौपचारिक रोजगार को औपचारिक रूप देने में मदद करना और कोविड-19 महामारी के दौरान और उसके बाद रोजगार के नए अवसर पैदा करना है। जहां तक रोजगार सृजन का संबंध है, हमें लगातार इस पर नजर रखने की जरूरत है कि मौजूदा योजनाएं किस तरह आगे बढ़ रही हैं और उन लाखों लोगों को ऊपर उठाने के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है, जो अब भी एक अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहे हैं।
प्रो जयती घोष जैसे विकास अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया है कि राज्य द्वारा प्रत्यक्ष रोजगार सृजन (ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम के महत्वपूर्ण विस्तार और राष्ट्रीय स्तर पर शहरी रोजगार कार्यक्रम के निर्माण के माध्यम से) पहले से कहीं अधिक जरूरी आवश्यकता है। मनरेगा शहरी और ग्रामीण भारत, दोनों में पहले से ही निराश्रित और नए गरीबों के लिए एक जीवन रेखा रही है। लेकिन इस योजना को वास्तव में प्रभावी बनाने के लिए बहुत अधिक धन की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्तर पर मनरेगा के तहत अब भी औसतन 50 दिन से कम काम दिए जाते हैं। उनके मुताबिक, मनरेगा में पूरे 100 दिनों के लिए बजटीय प्रावधान करना जरूरी है।
छह साल पहले शुरू की गई प्रधानमंत्री जन धन योजना में दिसंबर, 2021 तक 40.35 करोड़ खाते में कुल 13 खरब रुपये से ज्यादा की राशि जमा थी। लेकिन लोगों को उन बैंक खातों में धन के निरंतर प्रवाह की आवश्यकता है। समाज के निचले पायदान पर रहने वाले लोगों के हाथ में पैसा रहेगा, तभी वह अधिक खपत को बढ़ावा देगा और इसका सकारात्मक असर होगा।
यह संभावित रूप से सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के पुनरुद्धार को गति दे सकता है, जो मांग की कमी के कारण ठप हैं या खत्म हो रहे हैं। इससे आर्थिक पुनरुद्धार को भी बढ़ावा मिलेगा। महामारी के तीसरे वर्ष में, नौकरी छूटना, कम कमाई और भविष्य के बारे में अनिश्चितता भारतीयों के लिए विनाशकारी है। युवाओं में गुस्सा बढ़ रहा है और कभी-कभी सड़कों पर फैल रहा है, क्योंकि नौकरी तलाशने वाले बहुत हैं और नौकरियां कम हैं।
यह कोई रहस्य नहीं है कि महामारी से पहले भी भारत में नौकरी का गंभीर संकट था। वर्ष 2017-18 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) में बेरोजगारी दर 45 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी। वर्ष 2018-19 और 2019-20 के पीएलएफएस सर्वे ने रोजगार में थोड़ा सुधार दिखाया, पर जो कुछ भी हासिल किया गया था, उसे महामारी की दो लहरों और फिर ओमिक्रॉन ने मिटा दिया है। महामारी एवं उससे जुड़े प्रतिबंधों ने लोगों की कमाई को बुरी तरह प्रभावित किया। अनेक लोग महामारी के कारण भारी कर्ज में डूबे हैं और उनकी बचत भी खत्म हो गई।
आने वाले हफ्तों में जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, वहां भी बेरोजगारी का संकट गहराया हुआ है। महामारी के दौरान असमानता बढ़ी है। पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकनॉमी द्वारा अप्रैल से अक्तूबर, 2021 के बीच कराए गए सर्वे के मुताबिक, सबसे गरीब 20 फीसदी भारतीय परिवारों की वार्षिक आय 1995 से बढ़ रही थी, पर महामारी वर्ष 2020-21 में 2015-16 के स्तर से 53 फीसदी कम हो गई। इन्हीं पांच वर्ष की अवधि के दौरान सबसे अमीर 20 फीसदी भारतीयों की वार्षिक घरेलू आय में 39 फीसदी की वृद्धि देखी गई। जाहिर है, अरबपतियों की बढ़ती संपत्ति कम नहीं हुई।
शहरी गरीब विशेष रूप से कमजोर होते हैं, क्योंकि उनके पास वह सामाजिक समर्थन नहीं होता, जो उनके ग्रामीण समकक्षों के पास होता है। गांव में लोगों के सिर पर छत होती है, भले ही वह फूस की हो और जमीन का एक छोटा-सा भूखंड होता है, जहां कम से कम वह थोड़ी देर के लिए टिक सकता है। भले ही कम मजदूरी मिले, पर खेतों में काम मिल जाता है। लेकिन शहरों में चाहे महामारी हो या नहीं, मकान मालिक घर का किराया मांगते हैं, खाने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते हैं।
मार्च, 2021 में प्यू रिसर्च सेंटर के विश्लेषण से पता चला कि महामारी की पहली लहर ने 7.5 करोड़ भारतीयों को गरीबी में धकेल दिया और मध्यवर्ग से 3.2 करोड़ लोग बाहर निकल गए। महामारी की दूसरी लहर ने और अधिक लोगों को गरीबी में धकेला, क्योंकि इसने कई गुना ज्यादा लोगों को मारा और संक्रमित किया। महामारी ने लाखों लोगों को मौत, इलाज खर्च, नौकरी एवं व्यवसाय के नुकसान के कारण गरीबी के गड्ढे में धकेला। ऐसे में, आने वाले बजट में रोजगार सृजन राजनीतिक प्राथमिकता में होना चाहिए। और यह अपने आप नहीं होगा। इसके लिए सरकार से बड़े प्रोत्साहन की जरूरत होगी। सबसे ज्यादा जरूरी लोगों में उम्मीद जगाने की आवश्यकता है।
अमर उजाला
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