सम्पादकीय

हिंसा के परिसर

jantaserishta.com
16 April 2022 2:12 AM GMT
हिंसा के परिसर
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विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्राप्त है। ऐसा इसलिए किया गया ताकि शैक्षणिक परिसर बौद्धिक विकास के केंद्र बने रहें। वहां नए विचारों, उत्कृष्ट मस्तिष्क के विकास को अवसर मिलता रहे। वहां से निकली प्रतिभाएं देश की तरक्की में काम आती हैं। अगर इन परिसरों में वैचारिक संकुचन का वातावरण होगा, सत्ता का हस्तक्षेप बना रहेगा, तो प्रतिभाओं का विकास बाधित होगा। नए अनुसंधान और शोध प्रभावित होंगे।

इस तरह प्रगतिशील और उर्वर समाज का निर्माण संभव नहीं होगा। मगर पिछले कुछ सालों में जैसे इस तकाजे को भुला दिया गया है और शैक्षणिक परिसर राजनीतिक दलों की जोर आजमाईश के अखाड़े बनते गए हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इन दिनों जिस तरह का माहौल बना हुआ है, वह इसका ताजा उदाहरण है।
दरअसल, पिछले कुछ समय से वहां वामपंथी और दक्षिणपंथी माने जाने वाले विद्यार्थी संगठनों के बीच वैचारिक संघर्ष बना रहता है। उसी का नतीजा रामनवमी के दिन देखने को मिला जब दोनों गुट मांसाहार पकाने और रामनवमी की पूजा में विघ्न डालने के आरोपों के साथ परस्पर भिड़ गए। उसमें दोनों तरफ से करीब साठ छात्र घायल बताए जा रहे हैं। इस घटना के बाद विश्वविद्यालय की कुलपति ने कहा कि बाहरी छात्र आकर परिसर में उपद्रव फैलाते हैं।
कुलपति के बयान के दो दिन बाद ही विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार के आसपास के इलाकों में भगवा ध्वज और धमकी भरे पोस्टर चिपका दिए गए। इससे एक बार फिर यह साफ हो गया कि बाहरी तत्त्व जेएनयू को बदनाम करने की ताक में रहते हैं। इसके पहले भी साबरमती छात्रावास में बाहर से आए कुछ उपद्रवी तत्त्वों ने मारपीट की थी, जिसे लेकर लंबे समय तक माहौल तनावपूर्ण बना रहा। ऐसे में सवाल है कि जब जेएनयू प्रशासन को पता है कि बाहरी तत्त्व परिसर में आकर उपद्रव फैलाने का प्रयास करते हैं, तो फिर उन पर रोक लगाने में दिक्कत कहां आ रही है।
जेएनयू परिसर की बनावट ऐसी है कि वहां कोई भी बेरोक-टोक घुस नहीं सकता। वहां आने-जाने वाले हर बाहरी वाहन की जांच होती है, उसे कहां, किससे मिलने, किस काम से जाना है, उसका ब्योरा दर्ज किया जाता है। इसके बावजूद वहां बाहरी लोग घुस कर मारपीट कर बाहर निकलने में कामयाब हो गए, तो कहीं न कहीं यह जेएनयू के सुरक्षा इंतजाम की खामी है। हां, परिसर में जाने वाली बसों में सफर करने वालों की जांच नहीं की जाती, इसलिए उनके जरिए उपद्रवियों के घुसपैठ करने की आशंका हो सकती है। मगर उन बसों पर नजर रखना भी कोई मुश्किल काम नहीं माना जा सकता।
बावजूद इन सबके, चिंताजनक बात यह है कि जेएनयू परिसर का माहौल खराब करने की कोशिशें जिस भी तरह हो रही हैं, उन्हें अगर रोका नहीं गया तो एक उत्कृष्ट संस्थान को नष्ट होते देर नहीं लगेगी। विद्यार्थी संगठनों के बीच वैचारिक टकराव हर जगह होते हैं, मगर उन्हें बाहर से संचालित किया जाएगा, तो परिसर की न तो गरिमा बचेगी और न विद्यार्थियों में वे मूल्य और मेधा, जिनके विकास की उनसे अपेक्षा रहती है। अच्छी बात है कि पुलिस ने जेएनयू के आसपास लगे भड़काऊ और आपत्तिजनक पोस्टर तथा झंडे हटा दिए, पर इतने भर से उस परिसर का माहौल सुधरने का भरोसा नहीं पैदा होता। संस्थाएं वहां पैदा होने वाली प्रतिभाओं के बल पर ख्याति अर्जित करती हैं, उपद्रवी तत्त्वों के माध्यम से नहीं। इस बात से जेएनयू प्रशासन भी अनजान नहीं।
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