सम्पादकीय

प्रेमचंद पुण्यतिथि विशेष: क्रूर यथार्थ में भी आदर्श की संभावना तलाश लेने वाले लेखक थे प्रेमचंद

Gulabi
8 Oct 2021 12:17 PM GMT
प्रेमचंद पुण्यतिथि विशेष: क्रूर यथार्थ में भी आदर्श की संभावना तलाश लेने वाले लेखक थे प्रेमचंद
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प्रेमचंद पुण्यतिथि विशेष

प्रेमचंद 1936 में इस संसार से चले गए, लेकिन अपनी रचनाओं के माध्यम से आज भी वे हिंदी के साहित्याकाश में किसी अटल नक्षत्र की भांति प्रभासित हो रहे हैं। प्रेमचंद जब लिख रहे थे, वो भारत की परतंत्रता का दौर था। अंग्रेजों के दमन और अत्याचार से भारतीय समाज त्रस्त था। प्रेमचंद की सफलता यह है कि ऐसे विकट समय को पूरे यथार्थ-बोध के साथ अपने साहित्य में उतारते हुए भी उन्होंने आदर्श का दामन नहीं छोड़ा। उन्होंने लेखन में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की राह पकड़ी जो उनकी कृतियों की कालजयिता का एक प्रमुख कारण है।


क्रूर से क्रूर यथार्थ को भी व्यक्त करते हुए वे किसी न किसी रूप में आदर्श की स्थापना कर लेते थे। उनकी रचनाओं को ध्यान से पढ़ने पर इसके अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। 'गोदान' जैसी यथार्थवादी कृति में भी वे जहां-तहां आदर्शवाद के धरातल पर खड़े नजर आते हैं। उल्लेखनीय होगा कि होरी का भाई हीरा ईर्ष्या में उसकी गाय को ज़हर दे देता है, जिसके चलते होरी की पूरे उपन्यास में दुर्गति होती है, लेकिन तब भी उपन्यास के अंतिम हिस्से में होरी हीरा को क्षमा कर देता है।

ऐसे ही, खन्ना और गोविंदी का प्रसंग भी है। खन्ना अपनी पत्नी गोविंदी की उपेक्षा करता है, लेकिन मिल में आग लगने के बाद जब वह संकट में पड़ जाता है, तो उसका ह्रदय-परिवर्तन हो उठता है। वो गोविंदी के पैरों में गिर पड़ता और वो उसकी गलतियों को भूलकर उसे सहारा देती है। वो कहती है, "सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो, अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे।" इन दोनों ही प्रसंगों में प्रेमचंद ने अपना अहित करने वाले को भी क्षमा कर देने के आदर्श का ही प्रतिपादन किया है।

'गोदान' की ही तरह प्रेमचंद की और कई रचनाओं में यथार्थ की पथरीली भूमि पर भी आदर्श के पुष्प खिले दिख जाते हैं। लेकिन यहाँ हम प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' का उल्लेख करेंगे क्योंकि यह वो कहानी है, जिसमें उन्होंने यथार्थ को उसके क्रूरतम रूप में प्रस्तुत किया है। कहानी के दोनों प्रमुख पात्र चूंकि दलित हैं, इसलिए इस कहानी के आधार पर उन्हें दलित-विरोधी सिद्ध करने की आलोचकीय कुचेष्टाएं भी साहित्य में हुई हैं, लेकिन ऐसे प्रयासों को कोई विशेष महत्व नहीं मिला। 'कफन' कहानी को हिंदी की पहली 'नयी कहानी' भी माना गया है। बहुधा विद्वानों का यह भी मत है कि इसमें प्रेमचंद ने आदर्श की राह नहीं पकड़ी है। लेकिन इस कहानी को यदि बारीकी से देखें तो स्पष्ट होता है कि इस चरम यथार्थ की कथा में भी प्रेमचंद आदर्श की संभावना तलाशने में नहीं चूके हैं।
कहानी में जब बुधिया की मृत्यु हो जाती है, तो घीसू उसके क्रियाकर्म के लिए जमींदार से लेकर गाँव के बनिया-महाजनों तक से मंगनी करने पहुँच जाता है। जमींदार उसे बुरा मानते हुए भी पैसे दे देते हैं। बाकी जगहों से भी पैसे मिल जाते हैं। अनाज-लकड़ी भी मिल जाती है। गाँव के लोग अर्थी के लिए बांस इत्यादि काटने में लग जाते हैं। इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि बुरे से बुरे व्यक्ति पर भी जब दुःख पड़ता है, तो समाज उसे संभाल लेता है। यह बात कफ़न के पैसों से पूड़ियाँ खा रहे घीसू-माधव की बातचीत में और बेहतर ढंग से स्पष्ट होती है।
माधव कहता है, "जब बुधिया मरने पर हमसे पूछेगी कि तुमने मुझे कफन क्यों नहीं दिया तो क्या कहेंगे ?"
इसपर घीसू जवाब देता है, "तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा?... उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!... वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया।" यहाँ घीसू का इशारा समाज की तरफ ही है। वस्तुतः यथार्थ की इस क्रूर कथा में भी प्रेमचंद ने समाज की मानवीयता का एक सुंदर आदर्श गढ़ दिया है और निश्चित रूप से यह आदर्श खोखला नहीं है।
सारांश यह है कि प्रेमचंद यदि एक ही साथ बौद्धिक वर्ग और सामान्य जनमानस दोनों के बीच लोकप्रिय हैं, तो इसका कारण उनकी रचनाओं की सहज भाषा और आमजन से जुड़े विषयों के साथ-साथ यथार्थ में आदर्श की संभावना का संधान कर लेना भी है।


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता
उत्तरदायी नहीं है।
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