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देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने चौतरफा विरोध के बीच आखिर अपना वह सर्कुलर वापस ले लिया जिसके मुताबिक तीन महीने या उससे ज्यादा की प्रेग्नेंट महिलाओं को ड्यूटी जॉइन करने के अयोग्य करार दिया गया था
देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने चौतरफा विरोध के बीच आखिर अपना वह सर्कुलर वापस ले लिया जिसके मुताबिक तीन महीने या उससे ज्यादा की प्रेग्नेंट महिलाओं को ड्यूटी जॉइन करने के अयोग्य करार दिया गया था। यह अच्छी बात है कि एसबीआई नेतृत्व को समय रहते अपनी गलती का अहसास हो गया और उसने अपने कदम वापस लेने में कोई हिचक नहीं दिखाई। पिछले 31 दिसंबर को जारी इस सर्कुलर में कहा गया था कि अगर प्रेग्नेंसी तीन महीने से ज्यादा की है तो कैंडिडेट को टेंपरेरी अनफिट माना जाएगा और उसे बच्चे की डिलिवरी के चार महीने बाद जॉइन करने की इजाजत होगी। इस सर्कुलर के जारी होने पर स्वाभाविक ही इसका तीखा विरोध होने लगा। न केवल बैंक कर्मचारी यूनियन इसके खिलाफ खुलकर सामने आए बल्कि सोशल मीडिया पर भी इसके विरोध में मुहिम शुरू हो गई।
दिल्ली महिला आयोग ने इसे महिलाओं के साथ भेदभाव करने वाला और अवैध बताते हुए कहा कि यह सर्कुलर वापस लिया जाना चाहिए। विभिन्न दलों की महिला सांसदों ने भी अलग-अलग मंचों पर इसके खिलाफ आवाज उठाई। इन सबके मद्देनजर स्टेट बैंक ने इस सर्कुलर पर अमल रोकने की घोषणा जरूर कर दी है, फिर भी यह सवाल बना हुआ है कि इस तरह का प्रतिगामी कदम बैंक ने कैसे और क्यों उठाया। याद रखना चाहिए कि राष्ट्रीयकृत बैंकों में महिलाओं के लिए वर्किंग कंडिशंस अच्छी नहीं रही हैं। उदाहरण के लिए, 2009 तक स्टेट बैंक में इस बात पर जोर दिया जाता था कि नियुक्ति और प्रोमोशन के वक्त महिलाएं मेडिकल टेस्ट करवाकर सुनिश्चित करें कि वे प्रेग्नेंट हैं या नहीं। मासिक चक्र के विवरण के साथ उन्हें यह बताना होता था। बदलते सामाजिक माहौल में ऐसे प्रावधान भले अतीत की बात हो गए हों, लेकिन ताजा सर्कुलर जैसे उदाहरण बताते हैं कि पीछे की ओर ले जाने वाली शक्तियां आज भी मौजूद हैं, जिनसे लगातार सतर्क रहने की जरूरत है।
इसी संदर्भ में यह सवाल भी उठता है कि क्या ताजा सर्कुलर को स्थगित करने मात्र से इस बहस को समाप्त मान लेना चाहिए? तीन महीने की प्रेग्नेंसी को अयोग्यता का पैमाना न मानने की घोषणा के बाद वह पुरानी व्यवस्था लागू हो गई है, जिसके मुताबिक छह महीने की प्रेग्नेंसी को अयोग्यता का पैमाना माना जाता है। सवाल यह है कि क्या प्रेग्नेंसी कोई बीमारी या अपराध है? अगर नहीं तो उसे किसी कर्मचारी को अनफिट करार देने का आधार कैसे बनाया जा सकता है? प्रेग्नेंसी के दौरान महिला कर्मचारियों को अतिरिक्त सुविधा और सहूलियत उपलब्ध कराने की बात तो समझ में आती है, लेकिन इस आधार पर उन्हें अनफिट करार देना उनके साथ भेदभाव का ही एक रूप है। इसे समझते हुए तमाम संस्थानों में ऐसे प्रावधान बदले जाने की जरूरत है।
नवभारत टाइम्स
Rani Sahu
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