सम्पादकीय

संविधान की प्रस्तावना : भारत 'सेक्युलर' क्यों है?

Gulabi
25 Nov 2021 5:25 AM GMT
संविधान की प्रस्तावना : भारत सेक्युलर क्यों है?
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संविधान की प्रस्तावना
संविधान की प्रस्तावना में विदेशी 'सेक्युलर' शब्द को अधिसूचित हुए आगामी 18 दिसंबर को 45 वर्ष पूरे हो जाएंगे। इसी दिन 1976 को आपातकाल (1975-77) के समय, जब सभी नागरिक अधिकारों को कुचलकर विपक्षी-विरोधी नेताओं को जेल में ठूंसा जा रहा था- तब तत्कालीन इंदिरा सरकार द्वारा संसद से अलोकतांत्रिक रूप से पारित 42वें संविधान संशोधन को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात प्रस्तावना में जोड़ दिया गया था।
स्वतंत्र भारत के इस दागदार घटनाक्रम ने संविधान में भारत के विवरण को 'संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य' से परिवर्तित करके 'संप्रभु, समाजवादी सेक्युलर लोकतांत्रिक गणराज्य' कर दिया था। प्रश्न उठता है कि क्या इससे पहले भारत कभी 'सेक्युलर' नहीं था या 42वें संविधान संशोधन के बाद और अधिक 'सेक्युलर' हो गया है? यदि राहुल गांधी की मानें, तो भारत में सांप्रदायिकता का प्रवेश मई 2014 के बाद हुआ था।
क्या भारत केवल इसलिए 'सेक्युलर' है, क्योंकि 26 जनवरी, 1950 से देश में लागू संविधान के अनुच्छेद 15(1)- राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल मजहब, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा- की भावना व्यक्त करता है? क्या भारत में सेक्युलरवाद- संविधान के उन अनुच्छेदों (29-30 सहित) के कारण जीवंत है, जिसमें अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से ज्यादा अधिकार दिए गए हैं?
जब स्वतंत्रता-पूर्व भारत का 14 अगस्त, 1947 को विभाजन हुआ, जिसे मोदी सरकार ने इस वर्ष से 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय किया है- तब देश का एक तिहाई हिस्सा, इस आधार पर काट लिया गया था कि मुसलमानों को अपनी संस्कृति, पहचान और मजहब की सुरक्षा हेतु अलग 'पाक-जमीन' चाहिए, जिसे हम आज इस्लामी गणराज्य- पाकिस्तान और बांग्लादेश के नाम से जानते हैं।
तब होना तो यह चाहिए था कि खंडित भारत भी स्वयं को 'हिंदू-राज्य' घोषित करता। ऐसा नहीं हुआ और ऐसा नहीं होना स्वाभाविक भी था- क्योंकि हिंदू दर्शन या हिंदुत्व में पूजा-पद्धति और मजहब नितांत व्यक्तिगत विषय है, जिसका राज्य में कोई हस्तक्षेप नहीं होता। भारतीय इतिहास साक्षी है कि यहां जितने भी हिंदू राजा हुए, उन्होंने अपनी निजी आस्था और संबंधित परंपरा को न ही अपने प्रजा पर थोपा और न ही उसके अनुपालन के लिए उन्हें बाध्य और प्रताड़ित किया।
सम्राट अशोक ही एकमात्र ऐसे अपवाद थे, जिन्होंने बौद्ध मतांतरण के पश्चात राज्य संसाधनों का उपयोग अपने नव-मत के प्रचार-प्रसार हेतु किया था। भारत अनादिकाल से आज के शब्दों में 'सेक्युलर' है- क्योंकि यहां के मूल हिंदू-दर्शन का आधार बहुलतावाद और समग्रता है। इसलिए जब दुनिया के कोनों से मजहबी अत्याचारों के कारण सीरियाई ईसाइयों, यहूदियों और पारसियों ने अपना उद्गमस्थल छोड़कर भारत में शरण ली, तब न केवल स्थानीय हिंदू-बौद्ध राजाओं और संबंधित प्रजा ने उनका स्वागत किया, बल्कि उन शरणार्थियों को अपनी पूजा-पद्धति, जीवनशैली और परंपरा को अपनाने की स्वतंत्रता भी दी।
वर्ष 629 में तत्कालीन केरल के राजा चेरामन पेरुमल ने कोडंगलूर में चेरामन जुमा मस्जिद का निर्माण पैगंबर साहब के जीवनकाल में कराया था, जोकि अरब के बाहर बनने वाली विश्व की पहली मस्जिद थी। यह समरस, सहिष्णु, शांतिपूर्ण और बहुलतावादी परंपरा तब भंग हुई, जब आठवीं शताब्दी में अरब से इस्लाम का और 16वीं शताब्दी में यूरोप से ईसाइयत का अपने स्वाभाविक दर्शन के साथ दूसरी बार भारत में आगमन हुआ।
वर्ष 712 में अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला करके भारत में इस्लाम के नाम पर मजहबी दमन का सूत्रपात किया था। उसी मानस से प्रेरित होकर अगले 650 वर्षों में महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, खिलजी, तुगलक, बाबर, अकबर, जहांगीर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान आदि ने यहां की मूल सनातन संस्कृति और प्रतीकों को क्षत-विक्षत किया। किंतु राजपूतों, जाटों, मराठाओं, साधु-संतों और सिखों आदि स्थानीय शासकों के सतत प्रतिकारों के कारण हिंदू-दर्शन अक्षुण्ण रहा। दुर्भाग्य से इस भूखंड के करोड़ों लोगों के लिए आज भी उपरोक्त इस्लामी आक्रांता प्रेरणास्रोत हैं।
जब उत्तर-भारत में इस्लामी प्रचार-प्रसार के नाम पर मजहबी शासकों का आतंकवाद चरम पर था, तब 1541 में दक्षिण-भारत के गोवा में फ्रांसिस जेवियर ने जेसुइट मिशनरी के रूप में कदम रखा। ईसाइयत के प्रचार हेतु भारत पहुंचे जेवियर ने उस समय 'गोवा इंक्विजीशन' के माध्यम से गैर-ईसाइयों के साथ उन मतांतरित ईसाइयों के खिलाफ उत्पीड़नयुक्त मजहबी अभियान चलाया, जो देशज परंपराओं के साथ अपनी मूल पूजा-पद्धति का ही अनुसरण कर रहे थे।
इसका विस्तृत उल्लेख संविधान निर्माता बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने भी अपने लेखन-कार्य में किया है। उनके अनुसार, '...जैसे ही गोवा में जांचकर्ताओं (इंक्विजीशन करने वाले) को पता चला कि वे (सीरियाई ईसाई) हेरेक्टिक हैं, तब पोप के प्रतिनिधि सीरियाई चर्च पर भेड़ियों की तरह टूट पड़े...।' कालांतर में ब्रितानियों ने चर्च-ईसाई मिशनरियों द्वारा भय, लालच और छल से मतांतरण को गति दी, जिसके गर्भ से द्रविड़-आंदोलन जन्म हुआ, तो दलितों को शेष हिंदू समाज से काटने का षड्यंत्र रचा गया। स्वतंत्र भारत में 'सेक्युलरवाद' के नाम पर इन विकृतियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन किया जाता है।
स्वतंत्रता के बाद खंडित भारत 'हिंदू-राज्य' नहीं बना और न ही ऐसा आज संभव व वांछनीय है। परंतु भारत अघोषित 'हिंदू-राष्ट्र' है। इसकी सामाजिक, समरस और सौहार्दपूर्ण हिंदुत्व जीवनशैली, सनातन चिंतन द्वारा जनित है। यदि विश्व के इस हिस्से में बहुलतावाद, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता अनादिकाल से जीवंत है, तो वह केवल हिंदू-दर्शन और कालांतर में अंकुरित अलग-अलग पंथ- जैन, बौद्ध, सिख और अनेकानेक पूजा-पद्धतियों के कारण है।
इस क्षेत्र में जहां-जहां इसके मूल सनातन-चरित्र का क्षय हुआ, वहां-वहां लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता ने दम तोड़ दिया। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हिंदू-विहीन कश्मीर- इसके उदाहरण हैं।
(-पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष)
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