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जंगली जानवर गांव की ओर आने लगते हैं, जिसमें आग के साथ बाघ का डर समाप्त नहीं हो रहा है।
प्राणवायु देने वाले जंगल हर वर्ष की तरह इस बार भी जल रहे हैं। इतनी भयावह स्थिति है कि उत्तराखंड, हिमाचल, मणिपुर जैसे राज्य और जम्मू और कश्मीर जैसे केंद्र शासित क्षेत्र में जब शीतकाल भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ था, तभी से जंगलों में आग फैल गई थी। बाघ और आग का आतंक इतना भयानक है कि विधानसभा चुनाव से एक दिन पूर्व यानी 13 फरवरी को उत्तराखंड के टिहरी जिले में नरेंद्र ब्लॉक के पसर गांव में 54 वर्षीय राजेंद्र सिंह अपने आंगन में ही बाघ का निवाला बन गया।
मार्च के दूसरे सप्ताह में भी उत्तरकाशी के मगन लाल को घर लौटते वक्त बाघ ने मार दिया था। इसी दौरान टिहरी रेंज में सूरत सिंह कुमाई नाम के वन बीट सहायक जंगल में आग बुझाते वक्त काल के गाल में समा गए। आग हर वर्ष किन कारणों से लग रही है, इसको जानने के लिए व्यापक अध्ययन व शोध करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं की जा रही है। पिछले चार दशकों से इसी तरह जंगल लगातार जल रहे हैं।
हजारों हेक्टेयर प्राकृतिक जंगल के अलावा वे छोटे-छोटे पौधे भी राख बन जाते हैं, जिन्हें उसी साल वृक्षारोपण कार्यक्रम के दौरान रोपा गया था। फूलों की घाटी के आसपास के जंगल जलने की खबर भी मिलती हैं। ऊंचाई की वन संपदा धू-धू कर जल रही है, जिसे बारिश ही बुझा सकती है। यहां स्थिति यह है कि चारों ओर पहाड़ों पर धुंआ ही धुंआ नजर आ रहा है और मैदानों में प्रदूषण का कोहरा पर्यावरण के लिए संकट पैदा कर रहा है।
वनाग्नि और वन कटान, दोनों उत्तराखंड के जंगलों में आजकल चरम सीमा पर है। इससे बारिश में भूस्खलन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। अनेक घटनाओं से पता चलता है कि हर बार ऊंचाई के जंगल से आग सुलगती है, जो विकराल रूप लेकर गांव तक पहुंच जाती है। इसका दुष्प्रभाव जंगली जानवरों पर भी पड़ रहा है। बाघ को जंगल में पर्याप्त भोजन न मिलने से उसने गांव की तरफ रुख कर लिया है।
अक्सर समाचार आते हैं कि बाघ ने किसी को अपना निवाला बना लिया है। उत्तरकाशी में जंगल के निकट बसे हुए गांव दिलसौड़, चामकोट, अठाली, लोदाडा, कमद, अलेथ, मानपुर आदि गांवों के लोग बताते हैं कि आग लगने से हिरन, जंगली सुअर, बारहसिंघा आदि झुलस कर मर रहे हैं। इस प्रजाति के जानवर जंगल में अब दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलते हैं। इसके कारण गांव में मवेशियों और लोगों को मारने के लिए बाघ पहुंच गया है।
देश में बाघों की संख्या पर हर साल जोर दिया जा रहा है, किंतु बाघ के भोजन की व्यवस्था जंगल में हो, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है। जंगल के राजा के इस आतंक के साथ-साथ मध्य हिमालय में चौड़ी पत्ती की अनेक वन प्रजातियां जैसे बांझ, बुरांश आदि के जंगल आग से समाप्त हो रहे हैं। चीड़ की सूखी पत्तियां जंगल में आग फैलाने के लिए अधिक संवेदनशील हैं, लेकिन शंकुधारी चीड़ के ऊंचे पेड़ों को कम ही नुकसान पहुंचता है। अब यह स्थिति आ गई है कि शीतकाल से ही जंगल जलने प्रारंभ हो जाते हैं। ऐसे में जंगली जानवर गांव की ओर आने लगते हैं, जिसमें आग के साथ बाघ का डर समाप्त नहीं हो रहा है।
सोर्स: अमर उजाला
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