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दीपावली की रात, मेरी समझ में, इसी स्थिति का महानाट्य अभियोजित करती है।
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब चाकचिक्य पर जरा ज्यादा ही जोर हो गया है! कृत्रिम प्रकाश के कारण जन्मे प्रकाश-प्रदूषण ने पूरी प्रकृति में एक व्यतिक्रम-सा पैदा किया है। एक अजीब-सी खलबली पैदा कर गया है नगरों का रात्रि-जीवन। जीव-जगत और वनस्पति-जगत का मेटाबॉलिज्म (चयापचय) गड़बड़ा गया है, जो कोरोना-जैसी महामारियों का भी सूक्ष्म कारक है और अनिद्रा-जन्य बीमारियों का कारक तो है ही!
नींद का सीधा संबंध 'मेलाटोनिन' नाम के रसायन से है, जो अंधेरे में ही संघनित होता है हमारे भीतर। जब हम जबर्दस्ती जगते हैं, तो वह जैवचक्रीय लय भंग होती है, जिसे अंतरिक्ष विज्ञान 'सिरकादियन रिद्म' कहता है! सूर्यास्त के बाद सब जीव-जंतु एक भोली नींद सो जाएं, तो सारा अस्तित्व एक तार से जुड़ा जान पड़ता है, वरना तो आस-पास और मन के दहराकाश में भी सब कुछ इतना छिन्न-भिन्न हो जाता है, जितना हमारा समाज, जहां साधनों का, अवसरों का बंटवारा अब तक सम्यक नहीं हुआ!
अमीर-गरीब के बीच की खाई और चौड़ी हो गई है, हालांकि ऊपरी तौर पर कुछ परिवर्तन गरीबों की जीवन-शैली में भी हुए हैं- हमारे मुहल्ले की वह वृद्धा भिखारिन अपनी भीख से पांच रुपये की कैण्डी चूस लेती है कभी-कभी, कमउम्र के रिक्शाचालक भी एक्सपोर्ट सरप्लस के टीशर्ट-जूते में नजर आ जाते हैं, अधिक संख्या में गरीबों के बच्चे स्कूल ही नहीं जाते ट्यूशन आदि भी पढ़ते हैं, मोबाइल-कंप्यूटर ने उनकी भी दुनिया बड़ी की है, पर अपने ही देश में द्वितीय श्रेणी का नागरिक बने रहने का दंश मिटा नहीं है।
इस तरह से आंख का धोखा ही हो गया है उजाला- एक अनंत मृग-मरीचिका का विस्तार! कोई तो कारण होगा कि दिवाली जैसे पर्व वंचितों को और उदास कर देते हैं। अट्टालिकाओं के आगे खड़े चौकीदार, वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की बूढ़ी कुंवारियां, गाड़ियों के शीशे पोंछते बाल-श्रमिक या बाल-व्यापारी फुटपाथों पर अखबार बिछाकर सोने वाले बेरोजगार- एक लंबी कड़ी है, ऐसे शहरी विस्थापितों की, जिनको दिवाली की चहल-पहल (कूड़ेदानों पर दीवाली के एक रोज पहले जलने वाले) यम के दीये-सा अकेला कर देती है।
भूमंडलीकरण ने वस्तुओं को तो सीमा-संतरण की छूट दे दी है। पूंजी की ललमुनिया 'उड़ि-उड़ि' कहीं भी बैठ सकती है, पर श्रम और रिवायतें अब भी पांवों में जंजीर पहने बैठी हैं : ना मोहे पंख न पांव वाली स्थिति में। दिल्ली जैसे शहर में तो दिवाली का मतलब है महंगे उपहारों का आदान-प्रदान, लेकिन सिर्फ उनके बीच जिनसे काम पड़ सकता है या कहिए, काम निकल सकता है। मंहगे उपहार लादे चमचमाती गाड़ियां इधर से उधर भागी जाती हैं।
ऐसे में शाम को कभी बाहर निकलना पड़े, तो आप उन बच्चों या औरतों की आंखों में झांककर देखिएगा, जो गुब्बारे, मिट्टी के चरघरवे, दीये, खील-बताशे या ऐसी पारंपरिक चीजें फुटपाथ पर सजाए बाजार के किसी कोने में बैठे होते हैं। कितनी गहरी उदासी, कैसा भयाक्रांत अकेलापन। हम कुछ और नहीं भी कर पाएं, उनसे दोस्ती तो कर ही सकते हैं, उन्हें अपने घर बुला सकते हैं।
दीये से ही दीया जलता है- दीवाली इस ओर एक सूफियाना इशारा है। और मुझे तो लगता है, सच्चे मन से उचारा गया हर शब्द दीया है, किसी का मनोबल उठाने और उसका भविष्य संवारने के उद्देश्य से बोला गया हर शब्द दीवा है- काल नद में तैरता हुआ दीवा! 'एनलाइटेन्मेंट' की इकलौती क्रिटीक यही बन सकती है कि उसमें मन के और संबंधों के गुह्य रहस्यों के प्रति 'क्वांटम फिजिक्स' वाला विनय न जग पाया।
वह यह न समझ पाया कि जीवन विरुद्धों का सामंजस्य है- तभी उजाले के हृदय में अंधेरा है, अभाव के हृदय में ही दुनिया के सब भाव झिलमिला रहे हैं, स्थिर धुर के चारों तरफ नाचता है गति का यह पूरा विलास। अणु के थिर समतल के भीतर प्रोट्रॉन -इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रॉन की अनंत कणिकाएं अपने होने की पूरी दमक में लगातार नाचती रहती हैं! दीपावली की रात, मेरी समझ में, इसी स्थिति का महानाट्य अभियोजित करती है।
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