सम्पादकीय

प्रभाष जोशी : अख़बारों में छप रही हिंदी को बनावटी से खांटी देसी बनाने का श्रेय

Tara Tandi
15 July 2021 6:43 AM GMT
प्रभाष जोशी : अख़बारों में छप रही हिंदी को बनावटी से खांटी देसी बनाने का श्रेय
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आज प्रिंट मीडिया में सिरमौर रहे जनसत्ता अख़बार के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी का जन्मदिन है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | शंभूनाथ शुक्ल| आज प्रिंट मीडिया में सिरमौर रहे जनसत्ता अख़बार के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी (Prabhash Joshi) का जन्मदिन है. अगर वे जीवित होते तो आज 84 वर्ष पूरे कर लेते. हिंदी की अखबारी पत्रकारिता में जनसत्ता के योगदान को जब भी याद किया जाएगा प्रभाष जोशी जरूर याद आएंगे. प्रभाष जोशी के बिना जनसत्ता का कोई मतलब नहीं होता, हालांकि प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता नहीं है. उन्होंने तमाम ऐसे काम किए जिनसे जनसत्ता के तमाम वरिष्ठ लोगों का जुड़ाव वैसा तीव्र नहीं रहा जैसा कि प्रभाष जी का स्वयं. मसलन प्रभाष जी का 1992 के बाद का रोल. यह रोल प्रभाष जी की अपनी विशेषता थी.

जनसत्ता में तो तब तक वे लोग कहीं ज्यादा प्रभावशाली हो गए थे जो छह दिसंबर 1992 की बाबरी विध्वंस की घटना को राष्ट्रीय गर्व के रूप में याद करते हैं. लेकिन प्रभाष जी ने इस एक घटना के बाद एक सनातनी हिंदू का जो धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिखाया वह शायद प्रभाष जी के अलावा और किसी में संभव नहीं था. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक दल बीजेपी के इस धतकरम का पूरा चिट्ठा खोलकर प्रभाष जी ने बताया कि धर्म के मायने क्या होते हैं.

आज प्रभाष जी की परंपरा को जब हम याद करते हैं तो उनके इस योगदान पर विचार करना बहुत जरूरी हो जाता है. प्रभाष जी ने जनसत्ता की शुरुआत करते ही हिंदी पत्रकारिता से आर्यसमाजी मार्का हिंदी को अखबारों से बाहर करवाया. उन्होंने हिंदी अखबारनवीसों के लिए नए शब्द गढ़े जो विशुद्ध तौर पर बोलियों से लिए गए थे. वे कहा करते थे कि जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखेंगे. और यही उन्होंने कर दिखाया. जनसत्ता शुरू करने के पूर्व एक-एक शब्द पर उन्होंने गहन विचार किया. कठिन और खोखले शब्दों के लिए उन्होंने बोलियों के शब्द निकलवाए. हिंदी के एडजेक्टिव, क्रियापद और सर्वनाम तथा संज्ञाओं के लिए उन्होंने नए शब्द गढ़े. संज्ञा के लिए उनका तर्क था देश के जिस किसी इलाके की संज्ञा जिस तरह पुकारी जाती है हम उसे उसी तरह लिखेंगे. अमरेंद्र नाम की संज्ञा का उच्चारण अगर पंजाब में अमरेंदर होगा तो उसे उसी तरह लिखा जाएगा.

आज जब उड़ीसा को ओडीसा कहे जाने के लिए ओडिया लोगों का दबाव बढ़ा है तब प्रभाष जी उसे ढाई दशक पहले ही ओडीसा लिख रहे थे. उसी तरह अहमदाबाद को अमदाबाद और काठमांडू को काठमाडौ जनसत्ता में शुरू से ही लिखा जा रहा है. प्रभाष जी के बारे में मैं जो कुछ लिख रहा हूं इसलिए नहीं कि मैने उनके बारे में ऐसा सुना है, बल्कि इसलिए कि मैने एकदम शुरुआत से उनके साथ काम किया और उनको अपना पहला पथ प्रदर्शक व गुरु माना तथा समझा.

प्रभाष जी को मैने पहली दफा तब ही देखा था जब मैं जनसत्ता की लिखित परीक्षा देने दिल्ली आया था. लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा जुड़ाव हुआ कि मेरे लिखने-पढ़ने में हर वक्त प्रभाष जी ही हावी रहते हैं. 28 मई 1983 को मैने प्रभाष जी को पहली बार देखा था और 4 जून 2009 को, जब मैं लखनऊ में अमर उजाला का संपादक था, वे लखनऊ आए थे और वहीं एयरपोर्ट पर विदाई के वक्त उनके अंतिम दर्शन किए थे. जनसत्ता में हमारी एंट्री अगस्त 1983 में हो गई थी, लेकिन अखबार निकला नवंबर में. बीच के चार महीनों में हमारी कड़ी ट्रेनिंग चली. प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी. यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी. राजीव शुक्ला और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे.

दैनिक जागरण भले ही तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो, लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों से कहीं ज्यादा बड़ा था. इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें. हमें अपने कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था. प्रभाष जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे. मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी को चोदरी कहते. साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते. एक-दो हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे.

प्रभाष जी ने बताया कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं. जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का ही इस्तेमाल करता था. इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को जिसको हम बोलते हैं. भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाई.

अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने लगे थे. सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया था. उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले. 1983 नवंबर की 17 तारीख को जनसत्ता बाजार में आया. प्रभाष जी का लेख- "सावधान आगे पुलिया संकीर्ण है", जनसत्ता की भाषानीति का खुलासा था. हिंदी की भाषाई पत्रकारिता को यह एक ऐसी चुनौती थी जिसने पूरी हिंदी पट्टी के अखबारों को जनसत्ता का अनुकरण करने के लिए विवश कर दिया.

उन दिनों उत्तर प्रदेश में राजभाषा के तौर पर ऐसी बनावटी भाषा का इस्तेमाल होता था जो कहां बोली जाती थी शायद किसी को पता नहीं था. यूपी के राजमार्गों में आगे सकरा रास्ता होने की चेतावनी कुछ यूं लिखी होती थी- सावधान! आगे पुलिया संकीर्ण है. अब रास्ता संकीर्ण कैसे हो सकता है, वह तो सकरा ही होगा. हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है. साथ ही यह अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है.

प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्य समाजी हिंदी थी. इसकी वजह देश में पहले से फल फूल रही हिंदी, हिंदवी, रेख्ता या उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम आधुनिक हिंदी था. इसे तैयार करने का मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोड़ना था.

उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा, हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई तैयार नहीं था. यहां तक कि वह ब्राह्मण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा.

लेकिन बनारस के ब्राह्मणों ने शुरू में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था. भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितों की हिंदी पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था. हिंदी का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण नहीं है. यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है. यह नागरी लिपि में लिखी गई एक ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग जैसी संस्कारहीनता हैं.

ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले निकल रहे थे. प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी भाषा बनाया. प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए. इस तरह प्रभाष जी ने उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्य समाजी मार्का अखबारों के समक्ष एक चुनौती पेश कर दी. इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तक जो हिंदी अखबार छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है. प्रभाष जी का यह एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है.

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