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उपभोक्ताओं के लिए आर्थिक बोझ बन जाएगा।
बीते कुछ दिनों से देश के थर्मल पॉवर प्लांट्स (तापीय बिजली संयंत्र) में कोयले की कमी और बिजली उत्पादन में गिरावट का मुद्दा सुर्खियों में छाया हुआ है। लेकिन मध्य जून में जब कोविड-19 महामारी कमजोर पड़नी शुरू हुई थी, तब सभी तापीय बिजली संयंत्र के पास औसतन 17 दिनों के कोयले का स्टॉक मौजूद था। हालांकि, अक्तूबर की शुरुआत में यह स्टॉक घटकर औसतन सिर्फ चार दिनों तक पहुंच गया। जिस तरह से आगे त्योहारों का सीजन आने वाला है और अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत दिखाई दे रहे हैं, उसमें कोयले की कमी के कारण बिजली कटौती की कहीं से भी उम्मीद नहीं थी। आखिर यह स्थिति क्यों आई और हम अब इससे कैसे उबर सकते हैं?
सबसे पहले यह समझना बहुत जरूरी है कि हर साल मानसून की शुरुआत के साथ बिजली संयंत्र अपने कोयले के स्टॉक को इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं, क्योंकि कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) कोयले की आपूर्ति घटाने लगता है। दरअसल, मानसून के दौरान कोयले का उत्पादन कम हो जाता है, जिससे खदानों से कोयले की आपूर्ति भी घट जाती है। इसकी वजह से अक्तूबर के मध्य तक बिजली संयंत्रों के पास कोयले का स्टॉक लगातार घटता है और उसके बाद दोबारा बढ़ने लगता है।
चूंकि, अक्तूबर से लेकर फरवरी तक बिजली की मांग कम रहती है और इस दौरान कोयले की आपूर्ति में भी पर्याप्त सुधार हो जाता है, तो इससे बिजली संयंत्रों को अपना स्टॉक दोबारा बढ़ाने का मौका मिल जाता है। हालांकि, वर्ष 2017 और 2018 में भी साल के ज्यादातर महीनों में बिजली संयंत्रों के पास कोयले का स्टॉक कम था, और अक्तूूबर के अंत तक यह पांच-छह दिनों के निचले स्तर तक पहुंच गया था। तो क्या इस साल स्थिति इससे भी खराब थी?
वास्तव में, इस साल जून के अंत में कोविड की दूसरी लहर कमजोर होने के साथ बिजली की मांग में लगातार बढ़ोतरी हुई, क्योंकि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र खुल गए थे। इसके अलावा गंगा के मैदानी इलाकों में मानसून आने में देरी की वजह से जुलाई और अगस्त के दौरान बिजली की मांग ऊंची बनी रही। इससे जून से लेकर अगस्त तक के बीच बिजली की मांग लगभग 12 प्रतिशत बढ़ गई, जो पिछले वर्षों में - पांच प्रतिशत से चार प्रतिशत के बीच रहती थी।
ऐसा होना बिजली वितरण कंपनियों के लिए अप्रत्याशित साबित हुआ, और इसका नतीजा यह हुआ कि अगस्त में उनका कोयले का स्टॉक तेजी से घट गया। कोयले के स्टॉक में जुलाई से लगातार गिरावट और अगस्त के बाद भारी गिरावट निश्चित तौर पर एक चेतावनी थी, जो कोयले की आपूर्ति से जुड़े सभी व्यक्तियों और संस्थाओं को दिखाई दे रही थी। लेकिन इससे निपटने के उपाय जरूरत पूरी कर पाने में नाकाफी रहे। हालांकि, सीआईएल ने वर्ष 2021 में सभी बिजली संयंत्रों को 2,700 लाख टन कोयले की आपूर्ति की, जो वर्ष 2018 और वर्ष 2019 में की गई आपूर्ति से 10 प्रतिशत ज्यादा थी। इसके बावजूद बिजली संयंत्रों के पास घटते स्टॉक की भरपाई नहीं हो सकी।
20 सितंबर से बिजली संयंत्रों के पास लगातार कोयले का स्टॉक पांच दिनों के आसपास तक का बना हुआ है, जबकि ज्यादा चुनौती वाले बिजली संयंत्रों ने इस बात को लगातार उठाया है। कोयले की ढुलाई को कम समय में बढ़ाने में असमर्थता स्पष्ट रूप से कोयला कंपनियों और भारतीय रेलवे के सामने आने वाली चुनौतियों में से एक है। इसलिए कोयले की आपूर्ति से जुड़ी बाधाओं की बारीकी से पड़ताल करने की जरूरत है, ताकि बिजली और कोयले की मांग से जुड़े उतार-चढ़ावों से बेहतर ढंग से निपटने की क्षमता हासिल की जा सके।
यहां यह बताना जरूरी है कि इस संकट के दौरान कोयला आधारित बिजली संयंत्र रोजाना लगभग 145 गीगावाट बिजली उत्पादन कर रहे हैं और कोयला आधारित बिजली उत्पादन में गिरावट आने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। हालांकि, दूसरे राज्यों में उत्पादित बिजली पर निर्भर बिहार और पंजाब जैसे राज्यों और बिजली की मांग में 25 प्रतिशत की उछाल दर्ज करने वाले राजस्थान ने अपनी अनुमानित मांग के मुकाबले बिजली आपूर्ति में पांच प्रतिशत से लेकर 15 प्रतिशत तक गिरावट आने की जानकारी जरूर दी। लेकिन सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, अधिकांश राज्यों में बिजली उत्पादन में आई कमी बहुत ज्यादा नहीं थी।
हमें इससे अगले साल मानसून के बाद कोयले और बिजली की मांग से निपटने के लिए क्या सीखना चाहिए? पहला यह कि बिजली वितरण कंपनियों को पहले से सक्रियता दिखाते हुए थोड़े समय के लिए बढ़ने वाली बिजली की मांग का आकलन करना चाहिए, ताकि चौंकाने वाली स्थिति न बने और बहुत ज्यादा भुगतान करके पॉवर एक्सचेंज से बिजली न खरीदनी पड़े। अनिश्चितता ज्यादा होने के कारण बाजार में बिजली की कीमतों में काफी उछाल भी देखा गया। इसके लिए कुछ हद तक अटकलों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। दूसरा यह है कि बिजली संयंत्रों को मानसून से पहले अपने कोयले के स्टॉक को बढ़ाने की योजना तैयार करनी चाहिए, ताकि मानसून के दौरान और उसके बाद कोयले की आपूर्ति शृंखला पर दबाव को घटाया जा सके।
इसके साथ-साथ, बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की वित्तीय स्थिति में भी सुधार होना जरूरी है, क्योंकि कोयले की अग्रिम खरीद की अपनी लागत होती है, जिसके लिए बजट के मामले में अधिकांश डिस्कॉम सक्षम नहीं होते हैं। इसके अलावा, अक्षय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ाने से भी कोयले पर दबाव घटेगा। इससे कोयले की उपलब्धता उस समय के लिए बढ़ सकेगी, जब अक्षय ऊर्जा उत्पादन कम होता है। जैसे रात के समय सौर ऊर्जा और मानसून के बाद हवाएं सुस्त होने के कारण पवन ऊर्जा का उत्पादन घट जाता है।
सबसे अंत में, हमें यह ध्यान रखना होगा कि इस संकट का नतीजा किसी भी तरह से कोयला आधारित बिजली उत्पादन में बढ़ोतरी या खनन में तेजी नहीं होना चाहिए। हमें इस दशक के अंत तक कोयले पर अपनी निर्भरता घटाने के बारे में सोचना चाहिए। अगर अभी कोयला आधारित बिजली का उत्पादन बढ़ाया गया, तो यह सिर्फ अलाभकारी परिसंपत्तियों को जन्म देगा और उपभोक्ताओं के लिए आर्थिक बोझ बन जाएगा।
Neha Dani
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