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मूल और ब्याज़ तो टैक्स पेयर ही भरेंगे। लेकिन
हाजी कौल सुबह-सवेरे मेरे दरवाज़े की साँकल खड़खड़ाते हुए पूछने लगे, ''बुद्ध के बेटे! जागते हो या सोए हो?'' मैं चौंकते हुए बोला, ''आज तो शुक्रवार भी नहीं। फिर व्रत कथा वाली संतोषी माता की तरह बुढि़या का रूप धर कर जागने-सोने की बातें क्यों कर रहे हो? मैं न जागता हूँ न सोता हूँ। बीच में हूँ।'' वह छूटते ही बोले, ''अमाँ यार! लगता है तुम भी उन सत्तानशीनों की तरह सत्ता के पलंग पर चार साल उनींदे ऊँघते रहते हो, जो समाज और देश का विकास सि़र्फ सपनों में करते हैं। जो 'अच्छे दिन आएंगे, अच्छे दिन आएंगे' कहते हुए घूमते रहते हैं; लेकिन अच्छे दिन केवल उन्हीं के आते हैं, जो चुनाव आते ही बोल्ड या कड़े ़फैसले लेने का ऐलान करने लगते हैं। इसका मतलब हुआ कि इससे पहले तक वे जो ़फैसले ले रहे थे, वे डरपोक थे या खरगोश के बालों की तरह नर्म। मज़ेदार बात है कि ये तमाम ़फैसले जनहित में होते हुए भी बहुतायत को लाभ पहुँचाने का प्रण लिया जाता है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि सत्ता का जनहित अक्सर टोलीहित होता है, जो चुनाव आते ही बहुतायत में बदल जाता है। पाँच साल तक अवैध ़कब्ज़ों को रोकने का मौखिक अभियान छेड़ने वाले चुनाव आते ही उन्हें नियमित करने के लिए कमेटी गठित करने की घोषणा कर देते हैं या फिर चुनावी घोषणा-पत्रों में सत्ता में आते ही अवैध ़कब्ज़ों को नियमित करने की बातें करने लगते हैं। सदा उधार का घी खाने वाली सरकारें चुनावों की गंध सूंघते ही विभिन्न योजनाओं के नाम पर जनहित में सरकारी ़खज़ाने का मुँह खोलने लगती है। ठीक भी है, अपनी जेब से तो कुछ जाना नहीं है। जब उधार का ही पीना है तो बाल्टी भर क्यों न पियें? क्योंकि ऐसी उधारी में जुलाब लगने का कोई डर भी नहीं होता। अगर चुनाव जीते तो सरकार अपनी होगी, और उधार उठा लेंगे। नहीं जीते तो अगले देखेंगे।
मूल और ब्याज़ तो टैक्स पेयर ही भरेंगे। लेकिन ऐश किसी भी पार्टी की सरकार करे, टैक्स तो जनता ही भरेगी। मरने के बाद परलोक किसने देखा? मगर जब तक पाँव ़कब्र में नहीं लटकते, हारने के बावजूद दूसरी बार जीतने की संभावना बनी रहती है। बस हर बार कुछ अलग फैंकना है। कभी जनहित में ़कदम कड़े हो जाएंगे तो कभी बोल्ड। करना जनहित है लेकिन आत्ममंथन बैठकों में अंतिम घोषणा सि़र्फ 'मिशन रिपीट' की होती है।'' ''इसका अर्थ हुआ कि अर्जुन की आँख मलाई पर ही रहती है'', मैंने कहा। मुझे गहरी आँखों से देखते हुए वह बोले, ''बात सि़र्फ मलाई की होती तो जनता के हिस्से में देग की खुरचन तो आती। लेकिन वह तो देगें सा़फ करती रह जाती है। राजनीति के ये धुरंधर सदा ऊनींदे ही मिलते हैं, चाहे सत्ता में हों या सत्ता से बाहर। सत्तानशीं होने पर सत्ता के पलंग पर ऊँघते हैं और विपक्ष में खड़े होकर। चुनावी साल में पक्ष-विपक्ष दोनों, जनता के हितों की रखवाली के दावे करते हैं। लेकिन सत्ता की चौकीदारी पाने वाले चौकीदार लोगों को ़खबरदार करते हुए सत्ता के पलंग पर पसर जाते हैं और हारने वाले थकान से चूर-चूर होकर खड़े-खड़े ही ऊँघने लगते हैं। हर साल सरकारी ़खर्चे पर सरकार की वर्षगाँठ मनाने वाले राजनीतिक दल पाँचवें साल में ऐडि़याँ रगड़ते हुए कहते नज़र आते हैं, 'हमने काम तो बहुत किया लेकिन लोगों तक पहुँचाने में नाकामयाब रहे।' जिस तरी़के से ये लोग चुनावों के व़क्त जागने का दावा करते हैं, उस पर मुझे दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं-उठे हैं माँ के लाल कुछ करके दिखाएंगे, करना क्या है डींगे मार के सो जाएंगे।'' इतना सुनते ही मेरे मुँह से बेसा़ख्ता निकला, ''माँ के लाल या सत्ता के दलाल।''
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
Gulabi
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