सम्पादकीय

गरीबी का दुश्चक्र: कोरोना संकट ने बढ़ाया निर्धनता का दायरा

Gulabi
8 Dec 2020 12:27 PM GMT
गरीबी का दुश्चक्र: कोरोना संकट ने बढ़ाया निर्धनता का दायरा
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कोविड-19 संकट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को इतनी गहरी चोट दी है कि हालात से उबरने में दशकों लग जायेंगे।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कोविड-19 संकट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को इतनी गहरी चोट दी है कि हालात से उबरने में दशकों लग जायेंगे। विचलित करने वाली खबर यह है कि महामारी के दुष्प्रभावों के चलते अगले दशक के अंत तक एक अरब लोग गरीबी की जद में होंगे। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी एनडीपी का नया अध्ययन बताता है कि वर्ष 2030 तक और बीस करोड़ सत्तर लाख लोग घोर गरीबी की दलदल में फंस सकते हैं,

जिसके चलते घोर गरीबी में जीने वाले लोगों की संख्या एक अरब पार कर जायेगी। इस महामारी ने जहां करोड़ों लोगों को संक्रमित किया है और लाखों लोगों की जान ली है, वहीं दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाओं को चौपट कर दिया है। वैश्विक पर्यटन जैसे उद्योग, जिससे करोड़ों लोगों की प्रत्यक्ष व परोक्ष जीविका जुड़ी हुई थी, उसे उबरने में सालों लग जायेंगे। दुनिया की मजबूत अर्थव्यवस्थाएं ही धराशायी हो गई हैं तो गरीब मुल्कों की क्या बिसात।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और डेनवर विश्वविद्यालय में 'पारडी सेंटर फॉर इंटरनेशनल फ्यूचर' के साझे अध्ययन से इस बात का खुलासा हुआ है कि कोविड-19 के प्रभावों से उबरने के प्रयासों के चलते सतत विकास के लक्ष्यों को पाना कठिन होगा, जिसका आने वाले दशकों में बहुआयामी प्रभाव आम आदमी की आर्थिकी पर पड़ेगा। ऐसे में नुकसान के प्रभाव को कम करना इस बात पर निर्भर करेगा कि देश का नेतृत्व विकास की कैसी नीतियों का चुनाव करेगा।

यही वजह है कि भारत में आत्मनिर्भर भारत की मुहिम चलायी जा रही है। 'लोकल के प्रति वोकल' रहने का आह्वान किया जा रहा है, जिससे छोटे व लघु उद्योगों को प्रश्रय मिल सके तथा रोजगार के अवसर बढ़ाए जा सकें। यह समय की जरूरत भी है क्योंकि मौजूदा दौर में बेरोजगारी अपने चरम पर है क्योंकि लॉकडाउन की प्रक्रिया में बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर खत्म हुए हैं और लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है।

ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जिनके वेतन कम हुए हैं और नये रोजगार के अवसरों का संकुचन हुआ है। विडंबना यह है कि सभी देशों की प्राथमिकता कोरोना संकट से अपने लोगों की जान बचाना है। उनकी प्राथमिकता पहले से चरमराये चिकित्सा ढांचे को दुरुस्त बनाने और संक्रमण पर रोक लगाने की है। उसके बाद दुनिया में वैक्सीन जुटाने की प्राथमिकता है और संक्रमण की दृष्टि से संवेदनशील तबकों तक पहुंचाने की व्यवस्था करना है। ऐसे में गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम हाशिये पर जा पहुंचे हैं, जिससे गरीबी उन्मूलन अभियान को झटका लगा है। बीते वर्षों में भारत के गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को वैश्विक स्तर पर सराहा गया था।

दरअसल, वैश्विक संस्थाओं की रिपोर्टों में भारत की सराहना की गई थी कि वर्ष 2011-12 से 2015 के बीच गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों का प्रतिशत 21.6 से घटकर 13.4 रह गया था लेकिन अब कोरोना संकट के चलते अर्थव्यवस्था की चूलें हिलने के बाद गरीबी का संकट और गहरा सकता है। अर्थव्यवस्था के संकुचन के चलते जहां रोजगार के अवसर कम हुए हैं वहीं क्रय शक्ति में गिरावट के चलते मंदी ने भी दस्तक दे दी है। उस पर खुदरा महंगाई की लगातार बढ़ती दर ने आम लोगों का जीना मुहाल किया है। मंदी और महंगाई का मेल जीवनयापन का संकट भी बढ़ा रहा है।

भारत के बाबत विश्व बैंक चेता चुका है कि देश में खपत के स्तर पर आधी आबादी गरीबी के निकट जा सकती है जो हमारी चिंता का विषय होना चाहिए। वैश्विक परिदृश्य में गरीबी की रेखा के नीचे जाने का जोखिम भी लगातार बढ़ता जायेगा। बड़ी संख्या में रोजगार के संकटों का संकुचन और क्रय शक्ति में गिरावट भी समस्या को जटिल बना रही है।

ऐसे में सरकार मौद्रिक नीतियों के साथ विकास कार्यक्रमों में तेजी लाकर रोजगार के अवसर बढ़ा सकती है, जिससे लोगों की क्रय शक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था मंदी के दुश्चक्र से मुक्त होगी और रोजगार सृजन की नयी शृंखला को विस्तार मिलेगा।


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