सम्पादकीय

सुलगती दीवारों पर पोस्टर

Gulabi
27 Oct 2021 4:18 AM GMT
सुलगती दीवारों पर पोस्टर
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सुलगती दीवारों

दिव्याहिमाचल.

अंततः उपचुनावों ने सियासी दीवारों को जितना सुलगाया उतने ही जोर-शोर से राजनीतिक पार्टियों के पोस्टर इनके ऊपर चस्पां हो गए। देखना यह होगा कि दीवारें पिघलती हैं या पोस्टर, लेकिन मुद्दों की ईंटें अब भुर-भुराकर मिट्टी और कीचड़ बनने लगी हैं। यानी अंतिम हथियार अब यही कीचड़ साबित होगा क्योंकि दोनों तरफ से कहने-सुनने का माहौल झगड़ालू हो गया है। कमोबेश दोनों तरफ से उम्मीदवारों के पोस्टरों पर कीचड़ गिरता रहा है और अब घातक राजनीति ने रही सही कसर भी उतार दी। आश्चर्य यह कि पुनः क्षेत्रवाद की मंजिलों पर राजनीतिक वैमनस्य का मुकाबला हो रहा है और बात टोपियों के रंग पर आकर टिक जाती है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि क्षेत्रवाद की राजनीति अब चुनावी अंडे देने वाली मुर्गी है, जबकि हकीकत में हिमाचल का समावेशी विकास हमेशा शिकायतों के घेरे में रहता है। केंद्रीय योजनाओं-परियोजनाओं का आबंटन और प्रादेशिक विकास के नक्शे पर उभरता क्षेत्रवाद हर सरकार के वक्त, सत्ता के नूर और गुरूर की कहानी है।

नया क्षेत्रवाद तो राजनीति के प्रभाव को अमल में लाने की मजदूरी सरीखा है, जो योजना के आकार और प्रकार को बदल सकता है। विभागीय परियोजनाओं में खिलते गुल अगर एकतरफा मुस्कराते हैं, तो कृषि-बागबानी क्षेत्र की असमंजस समझी जा सकती है। यह महज सेब और किन्नू की लड़ाई नहीें हो सकती, बल्कि प्रदेश स्तरीय तासीर में योजनाओं का घाटा है। ऐसे में सोचना यह भी होगा कि हिमाचल के मूल प्रश्नों, आत्मनिर्भरता की बागडोर तथा युवा रोजगार के लिए हो क्या रहा है। क्षेत्रवाद के पैरामीटर पहले भी श्वेत पत्रों की पोशाक पहनकर लड़ते-झगड़ते रहे, लेकिन आजतक यह सामने नहीं आया कि असली कसूरवार कौन है। क्षेत्रवाद तो अप्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करने का माध्यम रहा है, लेकिन कौन बता पाया कि किसने कंडक्टर, अध्यापक या मजदूर भर्तियों में हाथ रंग लिए। किसके इशारों पर इमारतें बनीं और उजड़ गईं या दफ्तर नाकारा हो गए। तमाम घाटे के निगम या बोर्ड इसलिए असफल हुए, क्योंकि हर किसी ने क्षेत्रवाद के फलक पर नए-नए होर्डिंग्स चस्पां किए। हिमाचल पथ परिवहन निगम के कितने ही डिपो केवल क्षेत्रवाद का अलंकरण करते रहे, लेकिन घाटे की इस व्यवस्था पर कभी सार्थक बहस नहीं हुई। छोटे से प्रदेश में एक सौ चालीस डिग्री कालेज तथा नौ मेडिकल कालेज, एम्स या पीजीआई सेंटर का स्थापित होना क्षेत्रवाद की क्षुधा के प्रतीक हैं या इनका चारित्रिक उत्थान होगा।


इतना ही नहीं हर बड़े मंदिर का ट्रस्ट अपने आप में ऐसा क्षेत्रवाद है, जहां सत्ता का पक्ष श्रद्धा की कमाई को राजनीति में झोंक और जोत देता है। यही क्षेत्रवाद नए जिलों के गठन की भूमि व भूमिका तैयार करता है, तो अब बात नगर निगमों की स्थापना से क्षेत्रीय संभावनाएं टटोलती है। अब तो सांस्कृतिक क्षेत्रवाद में राजनीति का दबदबा ही त्योहार बन जाता है। कभी ऊना महोत्सव से बड़ा हरोली उत्सव हो जाता है, तो इसे क्या कहेंगे या कभी लोहड़ी पर्व गरली-परागपुर को रोशन करने के बाद बुझ जाता है, तो उसे क्या कहेंगे। हम आज तक अलग-अलग बोलियों से हिमाचली भाषा का स्रोत नहीं पैदा कर पाए, तो यह अपनी तरह का ऐसा क्षेत्रवाद है जिसमें तमाम साहित्यकार भी शरीक हैं। इसी प्रदेश में एक ही गांव में तीन-तीन निजी विश्वविद्यालय खोल दिए जाते हैं या प्रदेश का सारा औद्योगिकीकरण कुछ जिलों में सिमट जाता है, तो इसे क्षेत्रवाद न कहंे या मान लें कि सत्ता का जन्म ही एक नए क्षेत्रवाद का जन्म बनता जा रहा है। बहरहाल ऐसे मुद्दों की समीक्षा तो सदन की बहस में ही होगी, फिर भी वक्त की नजाकत में कांग्रेस ने कुछ हरकत तो की ही है। शिव धाम के प्राथमिक टेंडर में अठारह से छत्तीस करोड़ तक पहुंचता आंकड़ा अगर आरोप की गहनता में चुनाव की खाक छान रहा है, तो हर निर्माण की कोख में पलती अनियमितता का जिक्र संवेदनशील हो जाता है। सवाल यह है कि हिमाचल की जनता चुनावों में मुद्दों को टटोल रही होती है या अदला-बदली के इश्तिहारों में इक रंग जनता के अपने सियासी मंसूबों का भी है, जो बहुत बार ईमानदार होकर भी निर्लिप्त भाव से चयन नहीं करता।


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