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सम्पादकीय
महामारी के बाद की महंगाई ने अक्सर दुनिया की व्यवस्था को बदला है, भारत में क्या बदल रहा है?
Gulabi Jagat
9 May 2022 6:52 AM GMT

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महामारी के बाद की महंगाई
अनिमेष मुखर्जी |
कह सकते हैं कि इस समय महंगाई (Inflation) एक दैनिक क्रिया बन गई है. रोज़ कुछ महंगा होने की खबर आती है. अभी घरेलू एलपीजी सिलिंडर (LPG CYLINDER RATE) चार अंकों में पहुंच गया, तो उससे पहले नींबू की कीमतें चर्चा में थीं और पेट्रोल डीज़ल के दामों की तो बात ही छोड़ दें. मेरी एक मित्र बेंगलुरू में रहती हैं. पति पत्नी दोनों कमाते हैं और दोनों की महीने की तनख्वाह छह अंकों में हैं. कुछ समय पहले तक जहां कुछ भी खर्च करने से पहले सोचना नहीं पड़ता था, अब उनका कहना है कि कई जगह हाथ रोकना पड़ता है. ज़ाहिर सी बात है कि भारतीय सिलिकॉन वैली (Indian Silicon Vally) में जीवनशैली से जुड़े काफ़ी खर्च हैं. वहीं दूसरी तरफ़ बीबीसी की रिपोर्ट है कि कई जगह महिलाएं एक समय में ही दिन भर का खाना बना रही हैं, ताकि गैस सिलेंडर दो महीने चल जाए. कुल मिलाकर, पिछले कुछ समय में महंगाई इतनी तेज़ी से बढ़ी है कि निम्न से लेकर उच्च मध्यमवर्ग सबपर फ़र्क पड़ा है. महंगाई की यह समस्या फिलहाल ग्लोबल है. पूरी दुनिया महंगाई की चपेट में है, लेकिन इसका असर अलग-अलग देशों में अलग-अलग है.
दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से एक वॉरेन बफ़ेट, उनके साथी चार्ली मंगर महंगाई पर अपनी चिंता जता चुके हैं. वित्तीय विशेषज्ञता के लिए दुनियाभर में मशहूर रे डालियो भी महंगाई न्यू वर्ल्ड ऑर्डर पर काफ़ी कुछ कह चुके हैं. ऐसा नहीं है कि चार्ली मंगर या रे डालियो को महंगे नींबू या सरसों का तेल खरीदने में समस्या हो रही है. दरअसल दुनिया में किसी महामारी और उसके बाद महंगाई का आना, अक्सर दुनिया की पूरी व्यवस्था को बदल देता है. इतिहास में ऐसा कई बार हो चुका है और दुनिया में इसको लेकर कई तरह की चिंताएं चल रही हैं.
जब दो अरब की हो गई एक ब्रेड
दुनिया में जनता के लिए सबसे बुरी चीज़ हायपर इन्फ़्लेशन है. हर आपदा के बाद ऐसा कहीं न कहीं होता है तेज़ी से बढ़ती महंगाई एक झटके में बेलगाम हो जाती है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी हायपर इन्फ़्लेशन की चपेट में आया, जो ब्रेड 1922 तक 160 मार्क की मिलती थी वो अचानक से महंगी होने लगी और 1923 आते-आते 2 अरब मार्क से ऊपर पहुंच गई. हर घंटे चीज़ों के दाम बढ़ते थे. दुकानों पर रेट लिस्ट लगनी बंद हो गई थी, लोग खाना ऑर्डर करते तो दाम कुछ और होता, जबतक खाना खाते, तो दाम बढ़ चुका होता. इंटरनेट पर इस दौर की कई तस्वीरें मौजूद हैं, जहां लोग ट्रॉली में भरकर नोट ले जा रहे हैं कि खाना खरीद सकें. इसी तरह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हंगरी और ग्रीस में अचानक से हायपर इन्फ़्लेशन आया जब 24 घंटे में चीज़ों के दाम दोगुने होने लगे. 1990 में ज़िंबाब्वे और यूगोस्लवाविया में ऐसा हुआ. इस स्थिति के कुछ समय बाद मुद्रा अमान्य हो जाती है और कई बार नए सिरे से अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जाता है, लेकिन तबतक जनता की स्थिति काफ़ी खराब हो चुकी होती है.
हाइपर इन्फ़्लेशन और स्टैगफ़्लेशन
हायपर इन्फ़्लेशन से मिलती-जुलती एक और स्थिति है स्टैगफ़्लेशन. दुनिया के तमाम अर्थशास्त्री मौजूदा स्थिति में इसकी संभावना से चिंतित हैं. स्टैगफ़्लेशन में महंगाई लगातार बढ़ती रहती है और रोज़गार की कमी से इसका असर भयावह हो जाता है. इसके बाद अर्थव्यवस्था में वृद्धि की दर कम होती जाती है. हायपर इन्फ़्लेशन जहां गरीब देशों की चिंता है, वहीं स्टैगफ़्लेशन मज़बूत अर्थव्यवस्थाओं को परेशान करने वाला कीड़ा है. सन् 1970 में वियतानम युद्ध के चलते अमेरिका स्टैगफ़्लेशन के चपेट में आया था जब तेल की बढ़ती कीमतों के चलते इसकी शुरुआत हुई थी. स्टैगफ़्लेशन की एक और खास बात है कि शेयरमार्केट पर इसका नकारात्मक असर नहीं पड़ा था. मौजूदा समय में दुनिया में तमाम वजहों से खाद्य सामग्री महंगी हो रही है. चीन ने दुनिया भर से मक्के का इंपोर्ट बढ़ा दिया है. मक्का दो चीज़ों में बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है. इससे एथेनॉल बनता है, जिसे डीज़ल में मिलाया जाता है. दूसरा मांसाहार के लिए तैयार किए जाने वाले पशुओं और तमाम जंकफ़ूड में भी मक्का प्रयोग होता है. इसका मतलब यह है कि आप नाश्ते में कॉर्नफ्लेक्स खाते हों या न खाते हों, मक्के का महंगा होना दुनिया भर में लोगों की थाली पर असर डालेगा.
रूस और यूक्रेन का युद्ध भी एक कारण
महंगाई का एक और कारण रूस और यूक्रेन का युद्ध है. जिसके चलते तमाम तरह के व्यापारिक रास्ते बंद हैं और ट्रांस्पोर्टेशन न हो पाने के चलते महंगाई बढ़ रही है. महंगाई का तीसरा कारण जलवायु है. दुनिया भर में औसत तापमान बढ़ा है और इसके चलते कई जगह उपज कम हुई है. साथ ही, दूसरे असर पड़े हैं. इसके अलावा कोरोना महामारी ने लोगों के सोचने के तरीके पर भी असर डाला है. जानकारों के मुताबिक कुछ ही साल में दुनिया में काम करने की नई संस्कृति आ जाएगी, जिसे न्यू वर्ल्ड ऑर्डर कहते हैं. जो लोग खासे प्रतिभावान होंगे और अपने काम में माहिर होंगे, वे सैटलाइट शहरों से या रिमोट लोकेशन से काम करेंगे. सैटेलाइट शहर का मतलब हुआ कि आपका दफ़्तर गुड़गांव में है और आप ग्रेटर नॉएडा या उससे भी आगे के किसी इलाके में रहें और महीने या हफ़्ते में एक-आध बार दफ़्तर जाए, बाकी दिन घर से काम करें. अमेरिका-यूरोप में यह शुरू हो चुका है. कंपनियों को भी इस तरीके में कई आर्थिक फ़ायदे हैं, तो वे इसे बढ़ावा दे रही हैं. संभव है कि भारत में भी यह तरीका कुछ सालों में थोड़ा लोकप्रिय हो.
कैश बर्निंग कम्पनियों का कम होना
दूसरा बड़ा बदलाव कैश बर्निंग कंपनियों के कम होने का होगा. कैश बर्निंग कंपनी का सीधा सा मतलब है पैसा फूंकने वाली कंपनी. ये स्टार्टअप इस उम्मीद में अरबों के घाटे वाला व्यापार करते रहते हैं कि एक दिन बाज़ार पर इनकी पकड़ होगी और ये तब मुनाफ़ा कमाएंगी. एमेज़ॉन इस मॉडल का सबसे सफ़ल उदाहरण है, जो कई साल तक बड़ा घाटा उठाते हुए आखिर में इस स्थिति में पहुंच गई कि बाज़ार में उसकी सत्ता स्थापित हो गई. भारत में हमने मोबाइल कंपनियों में इसी तरह की जंग देखी जहां फ़्री डेटा का घाटा उठाकर बाकी कंपनियों को रेस से बाहर कर दिया गया. इसके अलावा ज़ोमैटो, पेटीएम, फ़्लिपकार्ट, स्नैपडील और ओयो जैसे तमाम नाम हैं जो इसी उम्मीद के साथ घाटा उठा रहे हैं कि एक दिन बाज़ार से बाकी कंपनियां खत्म हो जाएंगी और तब यह मुनाफ़े में आएंगे.
बड़ी कंपनियों को छोड़कर सब परेशान होंगे
इन दो स्थितियों के अलावा एक और समस्या है जो बढ़ती महंगाई के चलते हम सबको झेलनी पड़ेगी. महंगाई और मंदी का सबसे ज़्यादा असर छोटे और मध्यम स्तर के कारोबारों और असंगठित कर्मचारियों पर पड़ता है. ज़ाहिर सी बात है कि हमारे आपके पास पैसे की किल्लत होगी, तो हम खर्च कम करेंगे. इसके चलते दैनिक मजदूरों और कामकाज करने वाले बाकी लोगों पर असर पड़ता है और उनकी आय कम होती है. वहीं बड़ी कंपनियां इतनी सक्षम होती हैं कि कुछ महीनों तक घाटा उठा लें, जबकि छोटे व्यापारी अक्सर इस तरह की स्थिति में कारोबार से बाहर हो जाते हैं.
हम अर्थशास्त्री नहीं हैं, तो यह टिप्पणी नहीं कर सकते कि भारत में महंगाई जिस रफ़्तार से बढ़ रही है, उसके दुष्परिणाम क्या होंगे. हमें नहीं पता कि क्या हम हायपर इन्फ़्लेशन या स्टैगफ़्लेशन जैसी स्थिति में जा सकते हैं. कुछ दिन पहले ही रिज़र्व बैंक ने रिवर्स रेपो रेट बढ़ाया. रेपो रेट बढ़ने का मतलब आर्थिक विकास की दर और महंगाई दोनों की रफ़्तार कम करना है. दुनिया भर के वित्तीय संस्थान पिछले कुछ समय यह काम कर चुके हैं, लेकिन ज़्यादातर जगहों पर महंगाई अब भी काबू के बाहर है. हम यह मानकर चलते हैं कि हमारे सरकारी तंत्र को इन सारी स्थितियों की भरपूर चिंता होगी और वे इसके लिए सही कदम उठाएंगे, लेकिन यह भी सच है कि आने वाला कुछ समय हम सबको काफ़ी महंगा पड़ने वाला है. चाहे, हमारी विचारधारा या राजनीतिक प्रतिबद्धता कुछ भी हो.
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