सम्पादकीय

महामारी के बाद वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्त गति से आगे बढ़ने वाली है

Gulabi
15 Feb 2022 10:13 AM GMT
महामारी के बाद वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्त गति से आगे बढ़ने वाली है
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वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्त गति से आगे बढ़ने वाली है
रुचिर शर्मा का कॉलम:
वैश्विक विकास दर में तेज बढ़ोतरी दुनियाभर में सुर्खियां बना रही है। भारत सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है तो फ्रांस विगत 52 वर्षों में अपने सबसे मजबूत विकास का दावा कर रहा है। जो बाइडेन हालिया तिमाही डाटा को इस बात के सबूत की तरह पेश कर रहे हैं कि अमेरिका चीन से भी तेज गति से बढ़ रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि 2021 के साल में आर्थिक आंकड़े इसलिए बहुत अच्छे दिखलाई दिए, क्योंकि उससे पहले वाले साल में सभी ने मुंह की खाई थी।
उसकी तुलना में यह बढ़त मौजूदा हाल के बारे में कुछ नहीं बताती है। सवाल यह है कि महामारी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं कितनी तेजी से बढ़ सकती हैं। आंकड़े तो यही बताते हैं कि 2020 के दशक में दुनिया की अर्थव्यवस्था इससे पहले वाले दशक की तुलना में धीमी गति से ही बढ़ेगी। थोड़ा इतिहास देख लें। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बेबी-बूम के चलते दुनिया की आबादी में दो प्रतिशत का इजाफा हो गया था, जो कि ऐतिहासिक उछाल थी। नई तकनीक और बड़े पैमाने पर निवेश से उत्पादकता में भी भारी बढ़ोतरी हुई।
इससे दुनिया की जीडीपी 4 प्रतिशत की अभूतपूर्व गति से बढ़ी। यह पोस्ट-वॉर मिरेकल 1950 के दशक तक जारी रहा। लेकिन फिर चीजें धरातल पर आने लगीं। जनसंख्या-दर घटी। उत्पादकता दर धीमी पड़ने लगी। लेकिन कुछ नई परिघटनाओं- जैसे ऋणों में उछाल, ब्याज दरों में कमी, भूमण्डलीकरण और मुक्त-बाजार प्रणाली- के चलते विकास दर कायम रही। 2008 की मंदी एक टर्निंग पॉइंट था, जिसने तेजी से चल रहे सभी पहियों को सुस्त कर दिया। पैसों का प्रवाह अवरुद्ध हो गया।
विकसित देशों में अनेक लोगों ने ऋणों में कटौती कर दी। दुनिया की उत्पादकता विकास दर एक प्रतिशत पर जा सिमटी, जबकि श्रम की बचत करने वाली डिजिटल तकनीक फैल रही थी। कामकाजी आबादी में जन्म दरें भी घटकर एक प्रतिशत हो गईं। यही कारण था कि 2010 के दशक में वैश्विक अर्थव्यवस्था 2.5 प्रतिशत से कुछ ही ऊपर की दर पर बढ़ी थी। यह युद्धोत्तर इतिहास की सबसे धीमी गति थी। जिन कारणों के चलते यह सुस्ती आई, उन्हें महामारी ने और मजबूत किया है।
वायरस के चलते विकास पर डी-पॉपुलेशन का दबाव बढ़ा है, रिटायरमेंट और नौकरी छोड़ने की घटनाओं में इजाफा हुआ है, प्रवासी संकट गहरा गया है और भारत जैसे देश तक में जन्म दर घटी है। आज भारत की जन्म दर वैश्विक औसत से भी कम हो गई है और महामारी के दिनों में यह निरंतर घटती ही चली गई है। इतिहास बताता है कि जब किसी देश की वर्किंग-पॉपुलेशन की विकास दर 2 प्रतिशत से ज्यादा घटती है तो सालाना 6 प्रतिशत से अधिक की विकास दर को कायम रखना मुश्किल हो जाता है।
रिकवरी के शुरुआती दिनों में उत्पादकता तेजी से बढ़ती है, लेकिन इस बार यह भी अनेक अर्थव्यवस्थाओं में सुस्त चाल से चल रही है। सीईआईसी के डाटा की मानें तो भारत की उत्पादकता विकास दर बीते कुछ सालों से नीचे की तरफ जा रही है। अमेरिका, चीन और भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अब वैश्वीकरण के बजाय 'आत्मनिर्भरता' को महत्व देने लगी हैं। उभरते हुए बड़े बाजार भी डाटा-फ्लो के नए नियम बना रहे हैं, जिससे इंटरनेट तक के डी-ग्लोबलाइज हो जाने का खतरा निर्मित हो गया है।
राष्ट्रीय लॉकडाउन की समस्या का सामना करने के लिए सरकारों ने बड़े पैमाने पर खर्च किया तो कर्ज के स्तर नई ऊंचाइयों पर चले गए। लेकिन अब जब ब्याज दरें भी बढ़ रही हैं तो तमाम तरह के कर्जदार भी विकास को बढ़ावा देने के लिए और ऋण लेने से हिचकिचाने लगे हैं। कोई भी देश दुनिया से कटा हुआ द्वीप नहीं होता है। सभी को सोचना होता है कि नए दौर में वे कैसे तेजी से विकास कर सकते हैं।
अमेरिका जैसे उच्च-आयवर्ग वाले देश- जो 3 प्रतिशत की सालाना विकास दर का लक्ष्य लेकर चले हैं- अगर 2 प्रतिशत भी अर्जित कर सकें तो भाग्यशाली होंगे। भारत जैसे निम्न-आयवर्ग वाले देश को भी अपनी अपेक्षाएं 7 से घटाकर 5 प्रतिशत करना होंगी। इस स्थिति को मुद्रास्फीति भी जटिल बना रही है।
ऐसे में नीति-निर्माता भी विकास को प्रोत्साहन देने वाले कदम नियमित रूप से उठाने में स्वयं को सक्षम नहीं महसूस करेंगे। विकास के डाटा में अल्पकालीन बढ़त को तूल देने के बजाय बेहतर होगा कि हम समझें महामारी के बाद की दुनिया पहले से भी धीमी गति से बढ़ने वाली है।
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