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- द्वेष-विद्वेष के बाद...
जगमोहन सिंह राजपूत; विभिन्न विचार वाले लोगों, समूहों और समुदायों में संवाद की स्थिति लगभग समाप्त है। संसद और विधान सभाओं में आरोप-प्रत्यारोप ही ध्वनित होते रहते हैं। अधिकांश माननीयों के कार्यकलापों पर नजर डालने पर स्पष्ट दिखाई देता है कि चुनाव से अधिक महत्त्वपूर्ण अन्य कुछ भी नहीं है। स्वार्थ की राजनीति में गांधीजी के विचार और मूल्य नेपथ्य में चले गए हैं।
इस तथ्य के अनगिनत उदाहरण उपलब्ध हैं कि एक किताब का प्रभाव या एक घटना में इच्छित या अनिच्छित भागीदारी व्यक्ति के जीवन जीने की कला और दर्शन में आमूल-चूल परिवर्तन कर उसके व्यक्तित्व को निखार सकते हैं। गांधी जी के जीवन में एक घटना और एक पुस्तक ने उनकी वैचारिकता और उसकी निर्मल व्यावहारिकता को व्यष्टि से समष्टि में समाहित कर दिया था। इस बदलाव में उन्हें परिवार से मिले संस्कार तो सहायक हुए ही, उससे भी अधिक सहायता उनके स्वयं के जन्मजात सूक्ष्म अवलोकन और विश्लेषण ने की थी।
वे प्रारंभ से ही छुआछूत जैसी परंपराओं को सहन करने को तैयार नहीं थे। जब वे पहली बार डरबन पहुंचे तब उन्होंने अब्दुल्ला सेठ, जो उन्हें लेने आए थे, के साथ असभ्य व्यवहार होते हुए देखा। वे इससे बहुत व्यथित हुए कि अब्दुल्ला सेठ इसे बर्दाश्त क्यों कर रहे थे। इसके बाद उन्हें स्वयं इसका अनुभव होने लगा। उन्होंने खुद पीटर मार्तिजबर्ग रेलवे स्टेशन पर घोर अपमान और हिंसा सही। बाद में महात्मा गांधी ने उस प्रकरण को अपने जीवन का सबसे अधिक क्रियात्मक अवसर कहा था। उस रात युवा बैरिस्टर एमके गांधी ने सोचा कि अपने अपमान का बदला लिया भी तो क्या बड़ा हासिल होगा? क्यों न पीढ़ियों ने जो दर्द, अन्याय और अपमान सहा है, उससे उन्हें छुटकारा दिलाया जाए! तभी से उनके अंत:करण में 'सर्वभूत हिते रत:' का दर्शन व्यावहारिक स्वरूप लेने लगा था।
दूसरा अवसर था एक किताब का प्रभाव। सन 1904 में गांधी ने अपने मित्र पोलाक द्वारा दी गई जान रस्किन की छोटी-सी पुस्तक 'अनटू दिस लास्ट' ट्रेन की रात्रि यात्रा में पूरी पढ़ी। तभी से उनका जीवन बदल गया। गांधी जी ने इसे अपनी आत्मकथा में अत्यंत सशक्त और हृदय-स्पर्शी ढंग से लिखा है- 'जो चीज मेरे अंदर गहराई से छिपी पड़ी थी, रस्किन के ग्रंथरत्न में मैंने उसका स्पष्ट प्रतिबिंब देखा। और इस कारण उसने मुझ पर अपना साम्राज्य जमाया और मुझसे उसमें दिए गए विचारों पर अमल करवाया।' अगले दिन प्रात: ही उन्होंने फीनिक्स आश्रम की स्थापना का काम शुरू कर दिया। बाद में उन्होंने इस पुस्तक का गुजराती अनुवाद भी किया जो सर्वोदय के नाम से छपा।
उस पुस्तक के अध्ययन से उत्पन्न प्रभाव ने उन्हें वे विचार दिए जो सर्वोदय की मूल अवधारणा बने। उन्होंने लिखा- 'मैंने सर्वोदय को इस प्रकार समझा है- एक, सबकी भलाई में हमारी भलाई है। दो, वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि आजीविका का अधिकार सभी को एक सामान है। तीन, सादा मेहनत मजदूरी का, किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।' (आत्मकथा, पृष्ठ 271)। वे टालस्टाय की 'रोटी के लिए आवश्यक श्रम' की अवधारण से भी परिचित थे कि यह प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह जीवन की मूल आवश्यकताओं के लिए शारीरिक श्रम अवश्य करे। उनके अनुसार यह नियम बौद्धिक कार्य करने वालों के लिए भी लागू होता था! हालांकि इस पर लोगों में विचार वैभिन्य अपेक्षित ही था और सदा बना भी रहेगा।
सन 1947 में महात्मा गांधी से पूछा गया- हम इस पर जोर क्यों डालें कि रबिंद्रनाथ या रमण अपना भोजन शारीरिक श्रम से अर्जित करें? क्या यह उनकी उच्च प्रतिभा का दुरुपयोग नहीं होगा? दोनों अपनी-अपनी जगह और ढंग से सामाजिक कार्य करते ही हैं। गांधी जी का उत्तर था कि मष्तिष्क का कार्य करने वाले का जीवन में विशिष्ट स्थान है। लेकिन शारीरिक श्रम सभी के लिए आवश्यक है। इससे कोई बच नहीं सकता, यह तो मस्तिष्क के कार्य करने वालों की बौद्धिक उपलब्धि को निखार सकता है।
उसी समय यह भी पूछा गया था कि क्या व्यक्तिगत आवश्यकताओं के लिए श्रमिक, किसान, डाक्टर, प्रशासक इत्यादि सभी को समान वेतन मिलना चाहिए? 16 मार्च 1947 को उनका उत्तर था- 'यदि भारत को अनुकरणीय आचरण करना है तो हर वर्ग को ईमानदारी से किए गए कार्य के लिए समान वेतन ही मिलना चाहिए। बौद्धिक कार्य का अपना अलग महत्त्व है और उसके लिए अलग परिवेश और परिस्थितियां भी आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराई जानी चाहिए, लेकिन श्रम ऐसे लोगों के लिए भी उपयोगी ही होगा, वह उनके बौद्धिक कार्य और उत्पाद को और स्तरीय बनाएग!' आज के नीति-निर्धारक इस पर आश्चर्य करेंगे और लगभग सभी मानेंगे कि यह असंभव है। गांधी जी भी यह जानते थे कि भारत में भले ही ऐसा कभी व्यावहारिक रूप में संभव न हो, लेकिन भारत को अपना लक्ष्य यही रखना चाहिए। निश्चित ही इसके लिए उन्होंने समर्थन तो तब भी नहीं ही मिला होगा, लेकिन इसका प्रभाव अनेक लोगों पर जरूर पड़ा।
प्रजातंत्र में हर स्तर पर चयनित जनप्रतिनिधियों का यह कर्तव्य तो दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सर्व-स्वीकार्य होना ही चाहिए कि अनुकरणीय आचरण उनका पहला उत्तरदायित्व है। उनके पास इसका कोई विकल्प नहीं है! यह भी सही है कि इसका कितना पालन हो रहा है, इससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। ऐसा इसलिए होता आया और हो रहा है क्योंकि गांधी के विचार और उनका अनुसरण तेजी से तिरोहित हुआ है। सात दशकों में जनता को यह स्पष्ट हो गया है कि मतदाता और चुनाव विजेता के बीच की दूरी लगातार बढ़ी है।
अधिकांश जनप्रतिनिधि अपने और अपनों में इतने व्यस्त हो चुके हैं कि न केवल अपने मतदाताओं से दूर होते गए, बल्कि वे उन नैतिक दायित्वों से भी आंख फेर चुके हैं जिनके अनुसार जीवन बिताने को गांधी ने देश की कई पीढ़ियों को तैयार किया था। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा जैसे लोग सत्ता में रह कर भी गांधी जी के उस अमर वाक्य को सार्थक कर गए कि 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है'।
देश की प्रशासन व्यवस्था और उसके लिए जिम्मेवार वर्ग मंत्री, न्यायालय, नौकरशाही और ऊपर से नीचे तक के सभी अधिकारी-पदाधिकारी दिन-प्रतिदिन की समस्याओं में इतने उलझ गए हैं कि अध्ययन, अनुशीलन, चिंतन-मनन के लिए समय शायद ही मिलता हो! विभिन्न विचार वाले लोगों, समूहों और समुदायों में संवाद की स्थिति लगभग समाप्त है। संसद और विधान सभाओं में आरोप-प्रत्यारोप ही ध्वनित होते रहते हैं। अधिकांश माननीयों के कार्यकलापों पर नजर डालने पर स्पष्ट दिखाई देता है कि चुनाव से अधिक महत्त्वपूर्ण अन्य कुछ भी नहीं है।
स्वार्थ की राजनीति में गांधी जी के विचार और मूल्य नेपथ्य में चले गए हैं। कुछ वर्ष पहले तक गांधी जी का चित्र सरकारी दफ्तरों में लगाया जाता था। कुछ राजनीतिज्ञों को लगा कि अब उसका कोई उपयोग नहीं है। पंजाब की नई सरकार ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के चित्र लगाने की परंपरा को ही नहीं तोड़ा, उसने गांधी जी का चित्र भी हटा दिया। वहां अमर शहीद भगत सिंह और बाबासाहेब आंबेडकर के चित्र लगाए गए हैं। ये दोनों मनीषी देश में सभी के लिए सम्माननीय और आदरणीय हैं। मगर क्या इसके लिए गांधी जी का अपमान करना आवश्यक था?
आज जो युवा राजनीति में हैं, उन्हें देशहित में अपने क्षितिज को विस्तार देने की जरूरत है। यदि वे स्वाध्याय और एकाग्र चिंतन को अपना लें तो उन्हें वे अस्सी करोड़ लोग भी दिखाई देंगें जो मुफ्त राशन ले रहे हैं। यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वे अपने अंतकरण से इसे पसंद नहीं करते हैं। समेकित विकास द्वारा उनका आत्म-सम्मान लौटना ऐसे नौजवानों द्वारा ही संभव होगा। हर तरफ यह विश्वास पैदा करना है कि क्षितिज विस्तार कर यदि गांधी सफल हो सकते थे, तो मैं क्यों नहीं? द्वेष और विद्वेष की रुग्ण राजनीति की मानसिकता से देश को छुटकारा दिलाना युवाओं का उत्तरदायित्व है। उन्हें ही गांधीजी के 'अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति' को याद करना होगा।