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सरकारी भूखंडों पर अवैध कब्जे की प्रवृत्ति अब तमाम शहरों के लिए नासूर बन चुकी है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी स्वाभाविक है।
सरकारी भूखंडों पर अवैध कब्जे की प्रवृत्ति अब तमाम शहरों के लिए नासूर बन चुकी है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी स्वाभाविक है। न्यायालय ने गुजरात और महाराष्ट्र की एक रेल लाइन के विस्तार को लेकर आ रही अड़चनों के संबंध में सुनवाई करते हुए कहा कि देश के सारे बड़े शहर अवैध कब्जे की वजह से झुग्गी बस्ती बन गए हैं। इन्हें हटाने और लोगों के पुनर्वास की जिम्मेदारी स्थानीय प्राधिकार की होनी चाहिए। यह उनकी नाकामी है कि इस तरह झुग्गी बस्तियां बढ़ती जाती हैं।
दरअसल, महाराष्ट्र के जलगांव और गुजरात के सूरत-उधना के बीच की रेल लाइन परियोजना इसलिए अधूरी है कि उस पर करीब ढाई किलोमीटर तक सघन बस्तियां बस गई हैं। उसी की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने यह नाराजगी जाहिर की। देश के तमाम शहर इस समस्या से जूझ रहे हैं। न्यायालय ने रेखांकित भी किया कि देश का कोई ऐसा शहर नहीं, जहां अवैध कब्जे की शिकायत न हो। इस तरह के कब्जे और झुग्गी बस्तियों के बसने की वजहें भी किसी से छिपी नहीं हैं। स्थानीय प्राधिकार की नजरों से वे जगहें ओझल नहीं हैं। मगर इस तरह के कब्जे क्यों रुकने का नाम नहीं लेते, इसकी वजहें भी साफ हैं।
छिपी बात नहीं है कि देश के हर शहर पर आबादी का बोझ बढ़ता गया है। लोग रोजी-रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन करते हैं। जो शहर कुछ बड़े हैं और वहां रोजगार के अवसर कुछ अधिक हैं, वहां लोग अधिक पहुंचते हैं। उनमें से बहुत सारे लोगों की माली हैसियत ऐसी नहीं होती कि कहीं किराए का मकान लेकर रह सकें। वे रेहड़ी-पटरी पर कोई कारोबार करके, दिहाड़ी मजदूरी या रिक्शा वगैरह चला कर गुजारा करते हैं। ऐसे लोग शुरू में सड़कों के किनारे या फिर किसी खाली जगहों में बसेरा तलाशते हैं, फिर किसी खाली सरकारी जमीन पर झुग्गी डाल लेते हैं।
तमाम शहरों के खुले नालों के किनारे, पार्कों में, रेलवे लाइनों के आसपास ऐसे लोगों की झोपड़ियां देखी जा सकती हैं। बड़े शहरों में ऐसी अनेक जगहें हैं, जहां झुग्गी बस्तियों का आकार हजारों की आबादी वाला बन चुका है। जब वे लोग बस रहे होते हैं, तब भी प्रशासन और स्थानीय प्राधिकरणों को नजर आ रहे होते हैं, पर उस वक्त सख्ती नहीं बरती जाती। फिर उन्हें हटाने का अदालत का आदेश आता है, तो उस पर राजनीति और आंदोलन शुरू हो जाते हैं।
यह भी छिपी बात नहीं है कि चूंकि उन झुग्गियों में रहने वाले लोग मतदाता भी होते हैं, इसलिए कई राजनीतिक दल उन्हें प्रश्रय और प्रोत्साहन देकर अपना वोट बैंक बनाने की कोशिश करते हैं। ऐसे अवैध कब्जों में कई छुटभैया नेता भी अपना धंधा चमकाने का काम करते हैं। बल्कि कहें कि उन्हीं के इशारे पर बहुत सारे कब्जे होते हैं। ऐसे भी कई मामले अदालतों में लंबित हैं, जिनमें झुग्गी बस्तियों की आड़ में बड़े राजनेताओं ने किसी पार्क या सरकारी भूखंड पर खुद कब्जा कर लिया।
चुनावों से पहले राजनीतिक दल उन बस्तियों में बिजली, पानी, सीवर वगैरह की सुविधाएं उपलब्ध कराने के वादे भी खुलेआम करते हैं। ऐसे में स्थानीय प्राधिकरणों की मजबूरी और अनदेखी समझी जा सकती है। अवैध कब्जे की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है, मगर यह तभी संभव होगा जब दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आवास की कोई व्यावहारिक योजना लागू हो।
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