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- आबादी की सीमा
Written by जनसत्ता; संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने दुनिया की बढ़ती आबादी को लेकर ताजा आंकड़े जारी कर दिए हैं। खास बात यह है कि चार महीने बाद यानी पंद्रह नवंबर को दुनिया की आबादी का आंकड़ा आठ अरब छू जाने का अनुमान है। सात अरब का आंकड़ा साल 2011 में आया था। रिपोर्ट में यह अनुमान भी व्यक्त किया गया है कि अगले तीन दशकों में दुनिया की जनसंख्या दो अरब और बढ़ जाएगी। और भारत के संदर्भ में देखें तो चौंकाने वाली बात यह है कि अगले साल यानी 2023 तक आबादी के मामले में हम चीन को पीछे छोड़ सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बढ़ती आबादी को लेकर जो आकलन पेश किए गए हैं, वे दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए चुनौतीपूर्ण हैं। कुछ छोटे और समृद्ध देशों को छोड़ दिया जाए तो कमोबेश सभी देशों की आबादी बढ़ रही है। फर्क बस यही है कि किसी की ज्यादा तो किसी की कम। फिर, आबादी बढ़ने के साथ-साथ संसाधनों का संकट भी बढ़ता जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक है। ऐसे में सभी देशों के सामने पहला बड़ा सवाल यही आता है कि इस बढ़ती हुई आबादी की बुनियादी जरूरतें कैसे पूरी हों? सबको दो वक्त का खाना, शिक्षा, स्वास्थ्य, रहने को घर, पानी आदि तो मुहैया करवाना ही होगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि बड़ी आबादी का प्रबंधन किसी भी देश के लिए आसान नहीं होता। पिछली आधी सदी के इतिहास पर गौर करें तो ज्यादातर एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिकी देशों को जिन हालात से दो-चार होना पड़ा, उसमें उनके लिए जनसंख्या नियंत्रण कोई मामूली काम नहीं था। इसलिए कई देशों के लिए यह प्राथमिकता भी नहीं रही। जाहिर है, ऐसे में इन महाद्वीपों में आबादी बढ़नी थी। और वैसे भी दुनिया के भूभाग पर जनसांख्यिकीय वितरण काफी भिन्न है। मोटा अनुमान है कि आज दुनिया की उनसठ फीसद आबादी एशिया में रहती है।
जबकि अफ्रीका में यह फीसद सत्रह, यूरोप में दस, लातिनी अमेरिका में आठ, उत्तरी अमेरिका में पांच और आस्टेÑलिया में एक है। ऐसे में आबादी और संसाधनों के बोझ तो उन्हीं देशों पर पड़ेगा जहां आबादी घनत्व सबसे ज्यादा होगा। हालांकि राहत की बात यह है कि वर्ष 2020 में वैश्विक जनसंख्या में बढ़ने की दर एक फीसद से भी कम रही। पिछले सात दशकों में पहली बार ऐसा हुआ। लेकिन आबादी बढ़ने की दर घटती-बढ़ती रहती है।
अगर आज भी वैश्विक आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी में जीने को मजबूर है तो निश्चित ही इसके कारण सरकारों की नीतियों में ही मौजूद होते हैं। सवाल यह है क्यों हम आबादी को बोझ के रूप देखते हैं, उसे संसाधन के रूप में क्यों नहीं देखते? भारत के साथ अच्छी बात यह है कि आज हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा युवा आबादी का है। और यह अभी अगले एक दशक तक बना रहेगा। लेकिन आज भारत में बेरोजगारी चरम पर है। अगर शिक्षा की बात करें तो पिछले साल यानी 2021 में ही पंद्रह करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित रहे।
इसे किसका दोष माना जाए? अगर सरकार रोजगार के मोर्चे पर ही गंभीरता से काम करे तो यही करोड़ों की आबादी देश की तस्वीर बदल सकती है। भारत में असंतुलित शहरीकरण भी कम समस्याएं नहीं बढ़ा रहा। ग्रामीण इलाकों में रोजगार का संकट और गहराया है। ये ऐसी समस्याएं हैं जिनका समाधान सरकारों के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए। हालांकि जलवायु संकट ने दुनिया की की मुश्किलें बढ़ाई हैं और इसका सीधा असर खाद्य सुरक्षा और लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ा है। लेकिन ये मानवजनित संकट ही ज्यादा हैं। इसलिए हल भी हमें ही निकालना होगा।