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- आबादी का दबाव
Written by जनसत्ता; जबसे आंकड़ा आया है कि अगले छह-सात सालों में भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा, चीन दूसरे स्थान पर खिसक जाएगा, तबसे यह चिंता और गहरी हो गई है। इस संदर्भ में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर व्यावहारिक नीति बनाने की भी सिफारिश की जाती रही है।
इसी के मद्देनजर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने भी सुझाव दिया है कि जनसंख्या नियंत्रण को लेकर व्यापक और सर्वमान्य नीति बनाई जानी चाहिए। इससे उम्मीद बनी है कि सरकार इस दिशा में जल्दी ही पहल करेगी। हालांकि जनसंख्या नियंत्रण को लेकर प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं। इन्हीं प्रयासों का नतीजा है कि भारत में प्रजनन दर दो के आसपास पहुंच गई है।
मगर समस्या का हल इतने भर से निकलने वाला नहीं है। मोहन भागवत ने यह भी कहा कि इसके लिए एक ऐसी नीति बनाने की जरूरत है जो सभी समुदायों पर समान रूप से लागू हो। अगर सभी समुदायों में प्रजनन दर संतुलित नहीं होती तो भौगोलिक सीमाओं में बदलाव के खतरे बने रहते हैं। हालांकि जनसंख्या नियंत्रण के लिए कोई व्यावहारिक और सर्वमान्य नीति बनाना कोई आसान काम नहीं है।
खासकर भारत जैसे विविध धर्म और समुदायों वाले देश में व्यक्तिगत निर्णयों से तय होने वाले मसलों को कानून के जरिए संचालित या नियंत्रित करना जोखिम भरा काम होता है। जनसंख्या नियंत्रण को लेकर इंदिरा गांधी सरकार ने कठोर नियम लागू किया था। उसका अनुभव बहुत खराब रहा। उसके चलते उनकी सरकार चली गई थी। देश के सभी समुदायों में उस कानून का तीखा विरोध हुआ था।
उस अनुभव को देखते हुए फिर किसी सरकार ने उस नीति को आगे बढ़ाने का साहस नहीं दिखाया। सबने इस मसले पर जनजागरूकता अभियान का ही सहारा लिया। कुछ अल्पसंख्यक समुदायों में परिवार नियोजन धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है। वे इसे अपनाने से बचते हैं। फिर अल्पसंख्यक समुदायों में अपनी आबादी के कम होने की वजह से भय भी बना रहता है, जिसके चलते वे जानते-बूझते परिवार नियोजन जैसी योजनाओं की अनदेखी करते हैं।
इसी तरह व्यवसाय से जुड़े समुदायों में अपने व्यवसाय के लिए वारिसों की चिंता रहती है। हालांकि अब लोगों में परिवार नियोजन को लेकर काफी जागरूकता आई है, जिसके उत्साहजनक परिणाम भी आए हैं, पर कुछ समुदायों की पुरानी सोच अभी इसमें आड़े आती है। उन्हें ध्यान में रखते हुए कोई कानून बनाना कठिन काम हो सकता है।
मगर आबादी का संसाधनों पर पड़ता दबाव एक कड़वी हकीकत है और इससे पार पाने के लिए कदम बढ़ाने ही पड़ेंगे। जनसंख्या अधिक होने का दुष्परिणाम हर स्तर पर दिखाई देता है। न सबको उचित पोषण मिल पाता है, न गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, चिकित्सा सुविधा और न रोजगार के अवसर उपलब्ध हो पाते हैं। यही वजह है कि भारत दुनिया के भुखमरी सूचकांक, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य आदि मामलों में सबसे नीचे के कुछ देशों के साथ खड़ा नजर आता है।
एक तरफ तो अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास हो रहा है और दूसरी तरफ आय की असमानता बढ़ रही है। देश को मजबूत और टिकाऊ अर्थव्यवस्था बनाए रखने की राह में भी आबादी का बढ़ना एक बड़ा रोड़ा है। अगर आबादी की रफ्तार नहीं थमी तो आने वाले सालों में अन्न का संकट भी पैदा होने की आशंका जताई जाने लगी है। इसलिए संघ प्रमुख मोहन भागवत की चिंता वाजिब है।