सम्पादकीय

जनसंख्या नीति और सुशासन

Subhi
23 Sep 2022 4:43 AM GMT
जनसंख्या नीति और सुशासन
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इससे बेरोजगारी, खाद्य समस्या, कुपोषण, प्रति व्यक्ति निम्न आय, निर्धनता में वृद्धि और महंगाई का बढ़ना स्वाभाविक है। कृषि पर बोझ बढ़ना, बचत और पूंजी निर्माण में कमी आना, अपराध में वृद्धि, पलायन का बढ़ना और शहरी दबाव के साथ समस्याएं पैदा होना भी लाजमी है।

सुशील कुमार सिंह; इससे बेरोजगारी, खाद्य समस्या, कुपोषण, प्रति व्यक्ति निम्न आय, निर्धनता में वृद्धि और महंगाई का बढ़ना स्वाभाविक है। कृषि पर बोझ बढ़ना, बचत और पूंजी निर्माण में कमी आना, अपराध में वृद्धि, पलायन का बढ़ना और शहरी दबाव के साथ समस्याएं पैदा होना भी लाजमी है। अगर बढ़ती जनसंख्या कई समस्याओं को हवा दे रही है, तो यह सुशासन की गर्मी को ठंडा भी कर सकती है।

जनसंख्या और सुशासन का गहरा संबंध है। सुशासन एक लोकप्रवर्धित अवधारणा है, जिसके केंद्र में जन सरोकार होता है। इसके निहित भाव में गांधी का सर्वोदय शामिल देखा जा सकता है। सुशासन लोक सशक्तिकरण का परिचायक है, जबकि जनसंख्या विस्फोट समावेशी विकास के लिए चुनौती है। सुशासन उसी अनुपात में चाहिए, जिस अनुपात में जनसंख्या है।

साथ ही समावेशी विकास का ढांचा और सतत विकास की प्रक्रिया इस प्रारूप में हो कि समाज आदर्श न सही, व्यावहारिक रूप से सुव्यवस्थित और सु-जीवन के योग्य हो। इस सुव्यवस्था के लिए जनसंख्या नीति एक कारगर उपाय हो सकता है। अगर इसके गंभीर पक्षों को देखें तो भारत में जनांकिकीय संक्रमण द्वितीय अवस्था में है।

एक ओर जहां स्वास्थ्य सुविधाओं के विकेंद्रीकरण के चलते मृत्यु दर में कमी आई है, तो वहीं दूसरी ओर जन्मदर में अपेक्षित कमी ला पाने में सफलता नहीं मिल पाई है। यह इस बात का संकेत है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला भारत जल्दी ही चीन को पीछे छोड़ सकता है। विश्व जनसंख्या संभावना रिपोर्ट 2022 में इसकी मुनादी भी हो चुकी है।

अनुमान है कि 2022 के अंत तक चीन और भारत की जनसंख्या लगभग बराबर होगी और 2023 में भारत आबादी के मामले में चीन को पछाड़ देगा। आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि 15 नवंबर, 2022 तक दुनिया आठ अरब की जनसंख्या वाले आंकड़े को छू लेगी, 2030 तक यह साढ़े आठ अरब और 2050 तक 9.7 अरब हो जाएगी। संसाधन की दृष्टि से पृथ्वी संभवत: दस अरब की आबादी को पोषण और भोजन उपलब्ध करा सकती है। जाहिर है, उक्त आंकड़े चेता रहे हैं कि अगर जनसंख्या नियंत्रण को लेकर अब भी दूरी बनाए रखी गई तो जीवन के लिए खतरे कहीं अधिक बड़े रूप में खड़े होंगे।

भारत में जनसंख्या नीति पर काम स्वतंत्रता के बाद ही शुरू हो गया था, मगर इसे समस्या न मानने के चलते तवज्जो ही नहीं दिया गया। तीसरी पंचवर्षीय योजना के समय जनसंख्या वृद्धि में तेजी महसूस की गई। चौथी पंचवर्षीय योजना में जनसंख्या नीति को प्राथमिकता दी गई। अंतत: पांचवीं योजना में आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय जनसंख्या नीति घोषित हुई।

मगर उस दौर के हिसाब से यह अधिक दबावकारी थी। जनसंख्या नियंत्रण हेतु अनिवार्य बंध्याकरण कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया था। इसलिए सरकार के पतन के साथ यह नीति छिन्न-भिन्न हो गई। जब 1977 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार आई तब एक बार फिर नई जनसंख्या नीति फलक पर तैरने लगी। पुरानी से सीख लेते हुए इसमें अनिवार्यता को समाप्त करते हुए स्वेच्छा के सिद्धांत को महत्त्व दिया गया और परिवार नियोजन के बजाय इसे परिवार कल्याण कार्यक्रम का रूप दिया गया।

जाहिर है, इसका खास प्रभाव देखने को नहीं मिला। जून 1981 में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति में संशोधन हुआ। मगर देश की आबादी बढ़ती रही। 1951 में भारत की जनसंख्या छत्तीस करोड़ थी और 2001 तक यह आंकड़ा एक अरब को पार कर गया। यह इस बात का संकेत था कि जनसंख्या नियंत्रण हेतु जो नीति बनाई गई थी, उस पर दृढ़ता से पहल होनी चाहिए थी।

जनसंख्या विस्फोट कई समस्याओं को जन्म देता है। इससे बेरोजगारी, खाद्य समस्या, कुपोषण, प्रति व्यक्ति निम्न आय, निर्धनता में वृद्धि और महंगाई का बढ़ना स्वाभाविक है। कृषि पर बोझ बढ़ना, बचत और पूंजी निर्माण में कमी आना, अपराध में वृद्धि, पलायन का बढ़ना और शहरी दबाव के साथ समस्याएं सृजित होना भी लाजमी है।

अगर बढ़ती जनसंख्या कई समस्याओं को हवा दे रही है, तो यह सुशासन की गर्मी को ठंडा भी कर सकती है, जो सत्ता और जनता के हित में बिल्कुल नहीं है। बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर फरवरी 2000 में नई जनसंख्या नीति की घोषणा की गई, जिसमें जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार हेतु तीन उद्देश्य सुनिश्चित किए गए थे। बावजूद इसके 2011 की जनगणना में हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित और इतना ही गरीबी रेखा के नीचे दर्ज था।

भारत में जनसंख्या नीति को लेकर अगर नैतिक सुधार किया जा रहा है, तो इसे जनसंख्या नियंत्रण के बजाय गुणवत्ता में सुधार की संज्ञा दी जा सकती है। दूसरा यह कि क्या वाकई सरकारें परिवार नियोजन को लेकर संजीदा हैं। पानी सिर के ऊपर पहले ही जा चुका है। भारत की जनसंख्या नीति अब केवल एक सरल मुद्दा नहीं, बल्कि यह धर्म और संप्रदाय में उलझने वाला एक दृष्टिकोण भी बन गया है।

दिल्ली हाई कोर्ट में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें इस दिशा में केंद्र सरकार को कदम उठाने का निर्देश देने की मांग की गई। अपील में कहा गया था कि देश में अपराध, प्रदूषण बढ़ने और संसाधनों तथा नौकरियों में कमी का मूल कारण जनसंख्या विस्फोट है। ऐसी समस्याएं सुशासन के लिए चुनौतियां पैदा करती हैं।

भारत दुनिया का ऐसा पहला देश है, जिसने सबसे पहले 1952 में परिवार नियोजन अपनाया। बावजूद इसके, आज वह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी बनने वाला है। यहां चीन की चर्चा लाजमी है। चीन में एक बच्चे की नीति की शुरुआत 1979 में हुई थी। तीन दशक बाद एक बच्चे वाली नीति पर उसे पुनर्विचार करना पड़ा। हालांकि वहां युवाओं की संख्या घटी और बूढ़ों की संख्या बढ़ गई।

इसलिए कई लोग मानते हैं कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण कानून की अभी जरूरत नहीं है। कई नीति-निर्माताओं ने जनसंख्या विस्फोट और जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता को गलत बताया है। 2021 में उत्तर प्रदेश सरकार ने विश्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर 2021-30 के लिए नई जनसंख्या नीति जारी की, जिसमें 2026 तक प्रति हजार जनसंख्या पर 2.1 और 2030 तक 1.9 तक प्रजनन दर लाने का लक्ष्य रखा गया था।

फिलहाल भारत का सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य यूपी में मौजूदा प्रजनन दर 2.7 फीसद है। आंकड़ों को हकीकत में बदलने के लिए केवल कागजी कार्रवाई से काम नहीं चलता। दो बच्चा नीति को लेकर भी भारत में चर्चा जोरों पर रही है, मगर इसके लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। हालांकि असम में 2021 में दो बच्चे की नीति अपनाने का फैसला किया था। कई राज्यों में पंचायत चुनाव लड़ने वालों के लिए ऐसी योग्यता निर्धारित की गई है।

संसाधन और सुशासन का भी गहरा नाता है। बढ़ रही जनसंख्या के लिए संसाधन बढ़ाना भी सुशासन का दायित्व है। किसी राष्ट्र की जनसंख्या और संसाधनों के मध्य घनिष्ठ संबंध होता है। भारत में खाद्य समाग्री को लेकर चुनौतियां घटी तो हैं, मगर खत्म नहीं हुई हैं। दरअसल, देश की समस्याओं की मूल वजह जनसंख्या विस्फोट मानी जाती है। भारत का क्षेत्रफल विश्व के क्षेत्रफल का महज 2.4 फीसद है और आबादी अठारह फीसद है।

दक्षिण भारत के अधिकांश राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण पर सराहनीय कार्य किया है। केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में सर्वाधिक गिरावट है, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि में जनसंख्या दर उच्च बनी हुई है। छोटा परिवार, सुखी परिवार की अवधारणा दशकों पुरानी है, मगर इस सूत्र को अपनाने में लोग काफी पीछे हैं। छोटा परिवार, बेहतर परवरिश और परिवेश प्रदान करता है और सभी के लिए खुशहाली और शांति की राह तैयार करता है। ऐसे में भले देश में दो बच्चा नीति या कोई सशक्त जनसंख्या नियंत्रण का उपाय न भी हो, बावजूद इसके देश के नागरिकों के सार्थक सहयोग से सुखी परिवार और मजबूत देश को जमीन पर उतारा जा सकता है।


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