सम्पादकीय

राजनीति : जनता के पैसे के इस्तेमाल पर बहस कब? मुफ्त की रेवड़ियों पर तुमुल कोलाहल

Rounak Dey
23 Aug 2022 1:41 AM GMT
राजनीति : जनता के पैसे के इस्तेमाल पर बहस कब? मुफ्त की रेवड़ियों पर तुमुल कोलाहल
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राजनीतिक वर्ग की सजगता, पारदर्शिता और जवाबदेही पर निर्भर हैं।

राजनीति के मैदान में मुफ्त की रेवड़ियों पर तुमुल कोलाहल है। संकेतों, पूर्व धारणाओं और आरोपों की भीषण प्रतिद्वंद्विता चल रही है। रेवड़ियों के मामले में कोई भी राजनीतिक पार्टी पाक-साफ होने का दावा नहीं कर सकती। इस मामले में राजनीतिक संवाद की जरूरत तो है, पर नारेबाजी और शब्दाडंबरों के जरिये वास्तविक संवाद का रास्ता रोक दिया गया है। मौजूदा स्थिति व्यापक विमर्श की मांग करती है।




इस मुद्दे पर जनता के ध्यान को तात्कालिक समझ लेने और रेवड़ियों को सिर्फ चुनावी लाभ तक सीमित मान लेने की गलती हो सकती है। यह परिभाषित करने की जरूरत है कि मुफ्त की रेवड़ियां क्या हैं। इसकी लागत और इसके सांविधानिक कवच पर भी बहस होनी चाहिए। जनता की चिंता कई बार सार्वजनिक खर्च और करदाताओं का पैसा खर्च करने के मामले में सरकारी दूरदर्शिता की कमी के कारण पैदा गुस्से के रूप में भी सामने आती है।


करीब एक दशक पहले ही राज्य सरकारों ने खर्च के मामले में केंद्र सरकार को पीछे छोड़ दिया था। वर्ष 2016 से 2021 तक केंद्र और राज्य सरकारों का कुल खर्च 37.06 करोड़ रुपये से बढ़कर 64.70 लाख करोड़ रुपये हो गया। इस दौरान राज्य सरकारों का खर्च 23.60 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 42.11 लाख करोड़ रुपये हो गया। इस धनराशि का किस तरह इस्तेमाल किया गया? आम धारणा यह है कि चुने हुए विधायक अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं।

क्या चुने हुए जनप्रतिनिधियों के पास इतना समय और ऐसी सोच है कि वे करदाताओं का पैसा खर्च करने के मुद्दे पर बहस करें? राज्य सरकारों का अब तक का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि जनप्रतिनिधियों के पास अपनी जनता के बारे में सोचने, सत्तारूढ़ सरकारों के दावों का खंडन करने, सरकारी फंड पर बहस करने और योजनाओं को लागू करने का समय न के बराबर है। पीआरएस लेजिस्लेटिव का अध्ययन बताता है कि वर्ष 2016 से 2021 के बीच राज्य विधानसभाओं की साल में औसत 25 दिन ही बैठकें हुईं।

वर्ष 2021 में सभी राज्यों का कुल खर्च 42.11 लाख करोड़ रुपये था-यानी पिछले साल राज्य सरकारों का प्रति घंटे का खर्च 480 करोड़ और एक दिन का खर्च 11,537 करोड़ रुपये था। पिछले साल राज्य विधानसभाओं की बैठक औसतन 25 दिन हुईं-जो 2016 के सालाना 30 दिन से कम है। बदतर यह कि 29 में से 17 राज्य विधानसभाओं की पिछले साल 20 दिन से भी कम, जबकि पांच राज्य विधानसभाओं की 10 दिन से भी कम बैठकें हुईं!

कर्नाटक, ओडिशा, मणिपुर, पंजाब और उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं में विभिन्न सत्रों में एक तय संख्या में बैठक करने का नियम है। पर 2016 से 2021 तक कहीं भी इस नियम का पालन नहीं हुआ। पंजाब का ही उदाहरण लीजिए। वर्ष 2021 में इसका ऋण-जीएसडीपी (राज्य की जीडीपी) अनुपात 53.3 फीसदी, वित्तीय घाटा 4.3 प्रतिशत था और राजस्व का पांचवां हिस्सा ब्याज चुकाने में खर्च हुआ था। जाहिर है, राज्य की बदतर वित्तीय स्थिति ध्यान देने की मांग करती थी।

पंजाब विधानसभा की साल में 40 दिन बैठक होने का नियम है। वर्ष 2021 में राज्य में विधानसभा की 11 दिन बैठकें हुईं, जबकि 2016 से 2021 के बीच पंजाब विधानसभा में सालाना औसतन 14 दिन बैठकें हुईं। जनसंख्या के मामले में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का उदाहरण लीजिए। वर्ष 2021 में इसका ऋण-जीएसडीपी अनुपात 34.9 प्रतिशत और इसका वित्तीय घाटा 4.3 फीसदी था। वर्ष 2021 में अकेले सामाजिक क्षेत्र में इसका अनुमानित खर्च 1.93 लाख करोड़ रुपये था।

क्या खर्च सही तरीके से किया गया? इसका जवाब करदाताओं के पैसे के इस्तेमाल पर न पूछे गए सवालों में निहित है। नियम कहता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा की साल में कम से कम 90 दिन बैठकें होनी चाहिए। वर्ष 2021 में विधानसभा की बैठकें मात्र 17 दिन हुईं, जबकि 2016 से 2021 के बीच राज्य में सालाना औसतन 21 दिन बैठकें हुईं। कटु सच्चाई यह है कि विधानसभा की बैठकों में फंड के आवंटन और योजनाओं के क्रियान्वयन पर शायद ही कभी बहस होती है।

इसका नतीजा अपर्याप्तता, अक्षमता और घाटे में दिखाई पड़ता है। देश भर में शिक्षकों के 10 लाख से अधिक पद खाली हैं, जिनमें से अकेले बिहार में शिक्षकों के 2.48 लाख पद खाली हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्याप्त बदहाली का उदाहरण हाल ही में मध्य प्रदेश में दिखा, जहां एक सरकारी अस्पताल में एक बुजुर्ग महिला के घायल सिर की ड्रेसिंग कंडोम के पैकेट से कर दी गई! ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में 17,000 से अधिक विशेषज्ञों की कमी है-इनमें से 2,000 से ज्यादा विशेषज्ञों की कमी उत्तर प्रदेश में और 1,200 विशेषज्ञों की कमी ओडिशा में है।

देश भर में पुलिस कर्मियों के पांच लाख से अधिक पद रिक्त हैं-रिक्तियों की सूची में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और मध्य प्रदेश सबसे ऊपर हैं। रोजगार निर्माण के द्वारा निवेश पर भी कोई चर्चा नहीं होती। प्रत्येक राज्य अमूमन हर दूसरे साल अपने यहां निवेश कॉन्फ्रेंस का आयोजन करते हैं, जिसके अंत में करोड़ों रुपये के सहमति पत्र पर दस्तखत किए जाने के दावे किए जाते हैं। लेकिन क्या कभी इस बारे में चर्चा होती है कि करोड़ों के निवेश से कितनी फैक्टरियां स्थापित हुईं और कुल कितने लोगों को रोजगार मिला?

जवाबदेही के मामले में भी उदासीनता दिखती है। वर्ष 2017 से 2020 के बीच राज्य की बिजली वितरण कंपनियों को औसतन 70,000 करोड़ रुपये का घाटा हुआ-यानी रोज 200 करोड़ का घाटा। अनेक राज्यों में राज्य सरकार की लगभग आधी कंपनियां सालाना वित्तीय रिपोर्ट जारी नहीं करतीं। उदाहरण के लिए, तेलंगाना में राज्य सरकार की 66 कंपनियों में से सिर्फ 30 ने ऑडिट के लिए अपने खाते अपडेट किए, तो झारखंड में राज्य सरकार की 31 में से सिर्फ 16 सरकारी कंपनियों ने कैग के ऑडिट के लिए वित्तीय रिपोर्ट जारी कीं।

क्या सरकारी कंपनियों पर कंपनीज ऐक्ट लागू नहीं होते? क्या राज्य सरकारें करदाताओं के प्रति जवाबदेह नहीं हैं? भारत में आर्थिक वृद्धि इस पर निर्भर है कि राज्य सरकारों का प्रदर्शन कैसा रहता है। देश का लगभग हर वर्गकिलोमीटर राज्य सरकारों द्वारा प्रशासित है। भारत के राज्य आजाद देशों की तरह बड़े और जनसंख्या बहुल हैं। भारत की आकांक्षाएं, जाहिर है, राजनीतिक वर्ग की सजगता, पारदर्शिता और जवाबदेही पर निर्भर हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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